भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"साथी न कोई मंज़िल / मजरूह सुल्तानपुरी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मजरूह सुल्तानपुरी |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
16:08, 29 अगस्त 2013 के समय का अवतरण
साथी न कोई मंज़िल
दिया है न कोई महफ़िल
चला मुझे लेके ऐ दिल
अकेला कहाँ
हमदम कोई मिले कहीं
ऐसे नसीब ही नहीं
बेदर्द है ज़मीं, दूर आसमाँ
साथी न कोई मंजिल...
गलियां हैं अपने देस की
फिर भी हैं जैसे अजनबी
किसको कहे कोई, अपना यहाँ
साथी न कोई मंजिल...
पत्थर के आशना मिले
पत्थर के देवता मिले
शीशे का दिल लिये, जाऊँ कहाँ
साथी न कोई मंजिल...