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"मौत और ज़िन्दगी / रति सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
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रेत की लहरों पर बिछी | रेत की लहरों पर बिछी | ||
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काली रात है ज़िन्दगी | काली रात है ज़िन्दगी | ||
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मौत है | मौत है | ||
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लहराता समुन्दर | लहराता समुन्दर | ||
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समुन्दर के सीने पर | समुन्दर के सीने पर | ||
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तैरती लम्बी डोंगी है ज़िन्दगी | तैरती लम्बी डोंगी है ज़िन्दगी | ||
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मौत है | मौत है | ||
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फफोलों से रिसती समुन्दर की यादें | फफोलों से रिसती समुन्दर की यादें | ||
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यादों की ज़मीन पर | यादों की ज़मीन पर | ||
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उगी घास-पतवार है ज़िन्दगी | उगी घास-पतवार है ज़िन्दगी | ||
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मौत है | मौत है | ||
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हरियाली की भूरी जडें | हरियाली की भूरी जडें | ||
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चाहे कितनी भी लम्बी हो | चाहे कितनी भी लम्बी हो | ||
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मौत की परछाई है ज़िन्दगी | मौत की परछाई है ज़िन्दगी | ||
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वह खिलती है | वह खिलती है | ||
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दरख़्त की शाखाओं पर | दरख़्त की शाखाओं पर | ||
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गुडहल के फूल-सी | गुडहल के फूल-सी | ||
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नुकीले दाँतों और पंजों को पसार | नुकीले दाँतों और पंजों को पसार | ||
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आमंत्रित करती है | आमंत्रित करती है | ||
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काम-मोहित मकड़े को | काम-मोहित मकड़े को | ||
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मकड़ा जानता है | मकड़ा जानता है | ||
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भोग उसका नहीं | भोग उसका नहीं | ||
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फिर भी आनन्दित है | फिर भी आनन्दित है | ||
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मकड़ी देह पर | मकड़ी देह पर | ||
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जो कसती है पंजे | जो कसती है पंजे | ||
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ज़िन्दगी के मकड़े पर | ज़िन्दगी के मकड़े पर | ||
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वह भागता है छटपटाता हुआ | वह भागता है छटपटाता हुआ | ||
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फिर लौट आता है अंध-मोहित | फिर लौट आता है अंध-मोहित | ||
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अन्तत मौत निगल लेती है | अन्तत मौत निगल लेती है | ||
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घायल ज़िन्दगी को | घायल ज़िन्दगी को | ||
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आरम्भ होती है सर्जन किया | आरम्भ होती है सर्जन किया | ||
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मौत के आनन्द के जालों पर | मौत के आनन्द के जालों पर | ||
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फिर से जनमने लगती है | फिर से जनमने लगती है | ||
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18:32, 29 अगस्त 2013 के समय का अवतरण
1
रेत की लहरों पर बिछी
काली रात है ज़िन्दगी
मौत है
लहराता समुन्दर
समुन्दर के सीने पर
तैरती लम्बी डोंगी है ज़िन्दगी
मौत है
फफोलों से रिसती समुन्दर की यादें
यादों की ज़मीन पर
उगी घास-पतवार है ज़िन्दगी
मौत है
हरियाली की भूरी जडें
चाहे कितनी भी लम्बी हो
मौत की परछाई है ज़िन्दगी
2
वह खिलती है
दरख़्त की शाखाओं पर
गुडहल के फूल-सी
नुकीले दाँतों और पंजों को पसार
आमंत्रित करती है
काम-मोहित मकड़े को
मकड़ा जानता है
भोग उसका नहीं
फिर भी आनन्दित है
मकड़ी देह पर
जो कसती है पंजे
ज़िन्दगी के मकड़े पर
वह भागता है छटपटाता हुआ
फिर लौट आता है अंध-मोहित
अन्तत मौत निगल लेती है
घायल ज़िन्दगी को
आरम्भ होती है सर्जन किया
मौत के आनन्द के जालों पर
फिर से जनमने लगती है
