"गुजरिया के चीठी / बैद्यनाथ पाण्डेय ‘कोमल’" के अवतरणों में अंतर
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अमवा मंजरि गइले, तन प मदन छइले
अंग में भरल मधुमास।
अगना में लीखि-लीखि पतिया गुजरिया रे
भेजे परदेशिया के पास।
पतिया में लीखे ‘‘अब चढ़ले फगुनवा रे
बहे फगुनहटी बयार।
सप-सप देहिया में लागेला झकोरवा रे
सिहरेला गतर हमार।
केकरा से कहीं आज मनवाँ के भूखवा रे
केकरा से कहीं रे पियास?
कबिली के टूसवा प तितली जे नाज करे
रहरी के फूल गदराय।
बूंटवा-खेंसरिया-अंकरिया-मंसूरिया में
जिनिगी के रस लहराय।
छिपु के पतइयन में कुहुकि कोइलिया रे
मनवां में भरेली हुलास।
उठि-उठि चुप-चुप चलेला पवनवां श्रै
चूमि-चूमि फूलवन के गाल।
जउआ गरभि गइले, कहूँ-कहूँ फूटि गइले
गहुमा में लामी-लामी बाल।
लहलह लहसत केतकी गुलबवा
चमेलिया के उड़ेला सुबास।
ठुमुकि-ठुमुकि गावे तीसिया के फूलवा रे
केरा में छिपा के आसमान।
छूर से छितिजवा के छोरवा से बिरहा के
उठे तीर बनि-बनि गान।
भर दिन जगले बीतल बाटे, रतियो ना
अँखिया में निंदिया के बास।
कातिक-कुआर-अगहन-माघ बीति गइले
अब त बा फगुनी बहार।
हाय रे करमवां के फेरवा से अजहूं ना
पिया से भइल आँख चार।
धीरिजा कइसे हम चोलवा के दीहीं अब
नइखे रे मन के केयास।
गांव के गोयेंड़वा बा अमरूद बगिया रे
ओहि में बा सुगवन के नीड़।
सुगना-सुगीनिया जे रतिया में रति करे
मन में जगावेली रे पीड़।
अंखिया में नदिया, करेजवा में अगिया रे
रहि-रहि आवेला उसाँस।
झाँकि-झाँकि ताकि बाँकि गांव के जवनवन के
घूमेले जे गलिया के पाँत।
उनका के देखि-देखि मन में लहर जागे
पिया कब अइहें ना जनात।
सबके अगनवाँ में राग-रंग थिरकत
हमरे अगनवाँ उदास।
बतिया जे लीखी इहे पढे़ली हजार बार
तबो ना रे मनके सन्तोष।
‘‘अबका ई लीखी धनी, जलदी लवटि आव।
माफ करि सब मोरा दोष।’’
बन करि पतिया जे देई देली कगवा के
कागा लेई उड़ले आकाश।
अमवा मंजरि गइले, तन प मदन छइले
अंग में भरल मधुमास।