"वैभव की समाधि / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
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फूँक दे जो प्राण में उत्तेजना,
गुण न वह इस बाँसुरी की तान में;
जो चकित करके कॅंपा डाले हृदय,
वह कला पाई न मैंने गान में।
जिस व्यथा से रो रहा आकाश यह
ओस के आँसू बहाकर फूल में,
ढूँढ़ती उसकी दवा मेरी कला
विश्व-वैभव की चिता की धूल में!
कूकती असहाय मेरी कल्पना,
कब्र में सोये हुओं के ध्यान में;
खॅंडहरों में बैठ भरती सिसकियाँ
विरहणी कविता सदा सुनसान में।
हँस उठी कनक - प्रान्तर में
जिस दिन फूलों की रानी,
तृण पर मैं तुहिन - कणों की
पढ़ता था करुण कहानी।
थी बाट पूछती कोयल,
ऋतुपति के कुसुम-नगर की;
कोई सुध दिला रहा था,
तब कलियों को पतझड़ की।
प्रिय से लिपटी सोई थी,
तू भूल सकल सुधि तन की;
तब मौत सॉंस में गिनती,
थी घड़ियाँ मधु जीवन की।
जब तक न समझ पाई तू
मादकता निज मधुवन की;
उड़ गई अचानक तनु से,
कर्पूर-गंध यौवन की।
वैभव की मुसकानों में,
थी छिपी प्रलय की रेखा;
जीवन के मधु-अभिनव में,
बस इतना ही भर देखा।
निर्भय विनाश हॅंसता था,
सुषमाओं के कण-कण में;
फूलों की लूट मची थी,
माली - सम्मुख उपवन में।
माताएँ अति ममता से,
अंचल में दीप छिपाती;
थी घूम रही आँगन में,
अपने मुख पर इतराती।
पर, विवश गोद से छिनकर,
फूलों का शव जाता था;
औ राजदूत आँसू पर,
कुछ तरस नहीं खाता था।
धुल रही कहीं बालाओं,
के नव सुहाग की लाली;
थी सूख रही असमय ही,
कलियों से लदी द्रुमाली।
मैं ढूँढ़ रहा था आकुल,
जीवन का कोना-कोना;
पाया न कहीं कुछ केवल,
किस्मत में देखा रोना।
कलिका से भी कोमल पद,
हो गये वन्य-मगचारी;
थे माँग रहे मुकुटों में,
भिक्षा नृप बने भिखारी।
उन्नत सिर विभव-भवन के,
चूमते आज धूलों को;
खो रही सैकतों में सरि,
तज चली सुरभि फूलों को।
है भरा समय-सागर में,
जग की आँखों का पानी;
अंकित है इन लहरों पर,
कितनों की करुण कहानी।
कितने ही विगत विभव के,
सपने इसमें उतराते;
जाने, इसके गहवर में,
कितने निज राग गुंजाते।
अरमानों के इन्धन में,
ध्वंसक ज्वाला सुलगाकर;
कितनों ने खेल किया है,
यौवन की चिता बनाकर।
दो गज झीनी कफनी में,
जीवन की प्यास समेटे;
सो रहे कब्र में कितने,
तनु से इतिहास लपेटे।
कितने उत्सव-मन्दिर पर,
जम गई घास औ काई;
रजनी-भर जहाँ बजाते,
झींगुर अपनी शहनाई।
यह नियति-गोद में देखो,
भोगल-गरिमा सोती है;
यमुना-कछार पर बैठी,
विधवा दिल्ली रोती है।
खो गये कहाँ भारत के,
सपने वे प्यारे-प्यारे?
किस गगनांगण में डूबे,
वह चन्द्र और वे तारे?
जय-दीप्ति कहाँ अकबर के,
उस न्याय-मुकुट मणिमय की?
छिप गई झलक किस तम में,
भारत के स्वर्ण-उदय की?
वह मादक हॅंसी विभव की,
मुरझाई किस अंचल में?
यमुने! अलका वह अपनी,
डूबी क्या तेरे जल में?
अपना अतीत वीराना,
भटका फिरता खॅंडहर में;
भय उसे आज लगता है,
आते अपने ही घर में।
बिजली की चमक-दमक से,
अतिशय घबराकर मन में;
वह जला रहा टिमटिम-सा,
दीपक झंखाड़ विजन में।
दिल्ली! सुहाग की तेरे,
बस, है यह शेष निशानी;
रो-रो पतझड़ की कोयल,
उजड़ी दुनिया की रानी।
कह, कहाँ सुनहले दिन वे,
चाँदी-सी चकमक रातें?
कुंजों की आँख-मिचौनी,
है कहाँ रसीली बातें?
साकी की मस्त उॅंगलियाँ,
अलसित आँखें मतवाली;
कम्पित, शरमीला चुम्बन,
है कहाँ सुरा की प्याली?
गूँजती कहाँ कक्षों में,
कड़ियाँ अब मधु-गायन की?
प्रिय से अब कहाँ लिपटती,
तरुणी प्यासी चुम्बन की?
झॉंकता कहाँ उस सुख को,
लुक-छिप विधु वातायन से?
फिर घन में छिप जाता है,
मादकता चुरा अयन से?
वे घनीभूत गायन से,
अब महल कहाँ सोते हैं?
वे सपने अमर कला के,
किस खॅंडहर में रोते हैं?
वह हरम कहाँ मुगलों की,
छवियों की वह फुलवारी?
है कहाँ विश्व का सपना,
वह नूरजहाँ सुकुमारी?
स्वप्निल विभूति जगती की,
हॅंसता यह ताजमहल है!
चिन्तित मुमताज-विरह में,
रोता यमुना का जल है!
ठुकरा सुख राजमहल का,
तज मुकुट विभव-जल-सींचे;
वह शाहजहाँ सोते हैं,
अपनी समाधि के नीचे।
कैसे श्मशान में हॅंसता
रे ताजमहल अभिमानी?
दम्पति की इस बिछुड़न पर,
आता न आँख में पानी