भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बिरह नामा (बारा मासा) / रामफल चहल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामफल चहल |अनुवादक= |संग्रह=पलपोट...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

14:40, 25 सितम्बर 2013 के समय का अवतरण

इस बिरह नामे में कोयल की तुलना में कव्वे के बोलने को ज्यादा अच्छा माना गया है क्योंकि कव्वा बोलना किसी प्रियतम के आगमन का सूचक माना जाता है। एक विरहन युवती के मन में मौसम अनुसार परिवर्तन होता है तथा उसकी मनःस्थिति अलग-2 महीनों में कैसे बदलती है।

तेरा तन भी काल़ा मन भी काल़ा कड़वा तेरा बोल हो
पर कोयल की कूक इब नहीं सुहावै कागा मेरी अटरिया बोल हो
फागण म्हं होली संग खेल्ली फेर बालम अकेली छोड़ गए
चैत म्हं चिंता न खाई चकोर तै चंदा मूहं मोड़ गए
बैसाख म्हं भौंरें गुंजै मन्नै मुरझाई कली ज्यूं छोड़ गए
जेठ म्हं पड़ै जुल्म की गर्मी मेरी शरद सुराही फोड़ गए
साढ़ म्हं जोबन दाढ़ बण्या देख घटा मन रह्या डोल हो...
सामण बड़ा सुहावणा पर एकली न नहीं सुहाता
भादवै म्हं मन भर कै पिया याद बहोत घणा आता
आसोज की ऐश साथ गई ना अच्छा लागै नौराता
कात्तक बणै कन्त बिन कौतक मेरी रूस्सी लक्ष्मी माता
मंगसर जाड्डा रंगसर पड़ता ना रह्या दुख का तोल हो...
पोह म्हं पिया की प्रीत सतावै मैं रातों मरी जडाई
माह म्हं मन घणा मचलया मेंरी किसी चढ़ी करड़ाई
फागण फेर दुबारा आग्या मेरी जुत्ती भी मरड़ाई
सारा साल बीत गया इब तो आज्या हो हरजाई
सोचूं होली न तो पक्कम आवै जब बजै चंग अर ढोल हो
तेरा तन भी काला मन भी काला कड़वा तेरा बोल हो
पर कोयल की कूक इब नहीं सुहावै कागा मेरी अटरिया बोल हो