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"उत्तर-कथा (2) / प्रताप सहगल" के अवतरणों में अंतर
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दीवारों के रंग अपने आप नहीं बदलते
सिर्फ बदरंग होती हैं दीवारें
वक़्त के साथ-साथ
दीवारों का रंग बदलने के लिए
सबसे पहले होनी चाहिए
रंगों की पहचान
रंगों का मिलान करन भी एक कला है
मिलान की कला के पीछे हो
एक सूझबूझ भरी आँख
मिलान की पहचान ही काफी नहीं
दीवारों को रँगने के लिए
ज़रूरी हैं कुछ औज़ार भी
मसलन पत्ती जो दीवारों की
सड़ांध खुरच सके
रेगमार जो दीवारों के
बदरंगी रूप को धो सकें
मसलन एक सफ़ेद धोती
जो ख़ुद को मिटाकर दीवार की
मूल शक्ल झलका सके
मसलन ब्रश जो दीवार रंग सके
और इन सबके लिए चाहिए
दो हाथ
दो हाथ/और एक उम्र/एक उम्र
जो सूझबूझ भरी आँख से जुड़ी हो।