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18:38, 13 अक्टूबर 2013 के समय का अवतरण
मेरी युवा नज़रें जब खुलीं
उसने कई चेहरों को अपनी ओर घूरते पाया
एक के बाद एक लम्बी कतार में जुड़ते हुए चेहरे
वृत्ताकार हो गए
और गड्डमड्ड होकर उछलते रहे.
मैंने कई चेहरों को अपनी जेबों में भर लिया
एक चेहरे की मैंने अपने हाथों से कर दी हत्या
और कुछ को मैंने झपट कर हवा में उछाल दिया.
चेहरों की भीड़ में मुश्किल हो गया
अपना चेहरा ढूंढना
और इसी उलझाव में
मैं हर आकार को शक की निगाह से देखने लगा
पर मैंने आज ढूंढ लिया है एक चेहरा
मेरा अपना
और चेहरों की भीड़ छंट गई है.
वह चेहरा मेरा अपना है
उसे मैं शक की निगाह से नहीं देखता
और ना ही उसे जेब में भरने का करता हूं प्रयास
पर संजो-संजो कर
करीने से अपने मन के केन्द्र-बिन्दु में
उसे प्रतिष्ठित कर देता हूं.
अब मेरे पास चेहरों का हुजूम नहीं,
बल्कि सिर्फ एक चेहरा है.