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10:52, 16 अक्टूबर 2013 का अवतरण
मैंने चोरी की है
जी हाँ मैं ईश्वर को हाज़िर-नाज़िर मानकर
स्वीकार करती हूँ
चोरी की है मैंने।
आप मत लगाइये
मुझ पर बड़े-बड़े इल्ज़ाम।
सच-सच बताती हूँ मैं
चुराई थी मैंने थोड़ी-सी ताज़ा हवा
धूल भरे शहर में
और एक कोने में दुबके
उसे भर लिया था अपने अन्दर।
चुराई थी मैंने चिड़ियों की चहक
होती रही उसे सुन-सुनकर मुग्ध।
चाहा कि मुक्त हो सकूँ
अपने अन्दर की चीखो-पुकार से
और हाँ
चुराई थी मैंने फूलों की महक
महकाने को अपना घर
क्या यह सब अपराध है?
हाँ? तो मैंने किया है अपराध
सोचती हूँ
मैंने कोई दलाली तो नहीं खायी
न ही किया है सौदा
किसी से हथियारों का
तब फिर क्यों सज़ा देना चाहते हो मुझे
इन अबोध अपराधों की।