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हाँ, मैं ही हूँ
जिसे
महानगर की विशालता ने
खंड-खंड कर दिया है।
घर
और घर से बाहर
मैं जीती हूँ टुकड़ों में बँटकर।
गीता में पढ़ा था
आत्मा अजस्र है, अखंड है
पर लगता है
मेरा एक खंड
कई टुकड़ों में बँटकर
बिखर जाता है।
कभी एक टुकड़े को पकड़ती हूँ तो
दूसरा छूट जाता है
तभी दूसरा वाला खंड ओढ़कर
आ जाती हूँ बाहर
जिसमें हैं
साहित्य, राजनीति, सेक्स, महँगाई
और बच्चों की पढ़ाई।
मेरे दोनों विभक्त भागों में
लगातार चलता रहता है युद्ध
हर नया दिन
आरम्भ होता है
समझौते के आश्वासन से
जान-बूझकर छली गयी मैं
लौट आती हूँ पुनः वहीं।