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"जिजीविषा / शशि सहगल" के अवतरणों में अंतर

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11:31, 16 अक्टूबर 2013 के समय का अवतरण

मेरे वे आकाश-से खुले दिन
बह गये हैं
वक्त के साथ-साथ
मर गई है कविता
कहीं अन्दर-ही-अन्दर।
दुनियादारी की बाढ़ में
विवश-सी देख रही हूँ मैं
खुद को
मरते हुए।