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"कवि / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर

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12:02, 18 मार्च 2014 का अवतरण

 कवि अनूठे कलाम के बल से।

हैं बड़ा ही कमाल कर देते।

बेधाने के लिए कलेजों को।

हैं कलेजा निकाल धार देते।

है निराली निपट अछूती जो।

हैं वही सूझ काम में लाते।

कम नहीं है कमाल कवियों में।

है कलेजा निकाल दिखलाते।

क्यों न दिल खींच ले उपज आला।

जो कि उपजी कमाल भी वु+छ ले।

जिन पदों में छलक रहा है रस।

क्यों कलेजा न सुन उसे उछले।

भाव में डूब पा अनूठे पद।

जिस समय है कबिन्द जी लड़ता।

हैं उमंगें छलाँग सी भरती।

है कलेजा उछल उछल पड़ता।

तब उसे कौन है भला ऐसा।

दिल कमल सा खिला मिला जिस का।

फूल मुँह से झड़े किसी कवि के।

है कलेजा न फूलता किसका।

भेद उसने कौन से खोले नहीं।

कौन सी बातें नहीं उसने कहीं।

दिल नहीं उस ने टटोले कौन से।

घुस गया कवि किस कलेजे में नहीं।

है जहाँ कोई पहुँच पाता नहीं।

वह वहाँ आसन जमा है बैठता।

सूझ-मठ में पैठ बस रस-पैंठ में।

किस कलेजे में नहीं कवि पैठता।

जा रही किस का नहीं मन मोहती।

हाथ में किस वह अजब माला लसी।

छोड़ कवि बस कर दिखाने की कला।

है भला किसके कलेजे में बसी।

रस-रसिक पागल सलोने भाव का।

कौन कवि सा है लुनाई का सगा।

लोक-हित-गजरा लगन-फूलों बना।

है रखा किसने कलेजे से लगा।

बाँधा सुन्दर भाव का सिर पर मुवु+ट।

वह भलाई के लिए है अवतरा।

कौन कवि सा हित-कमल का है भँवर।

प्यार से किसका कलेजा है भरा।

है रहा किस में बसंत सदा बना।

नित चली किस में मलय सी पौन है।

धार किस में सब रसों की है बही।

कवि-कलेजे सा कलेजा कौन है।

एक कवि छोड़ कौन है ऐसा।

प्रेम में मस्त मन रहा जिस का।

भाव में डूब बन उमड़ते लौं।

है कलेजा उमड़ सका किस का।

फूल जिससे सदा रहा झड़ता।

मुँह वही आगे है उगल लेता।

क्या अजब, कवि जला भुना कोई।

है कलेजा जला जला देता।

हाथ ऊँचा सदा रहा किस का।

हित सकल सुख सहज सहेजे में।

कवि करामात कर दिखाता है।

ढाल जल जल रहे कलेजे में।

हैं किसी के न पास रस इतने।

है रसायन बना बचन किस का।

कवि सिवा कौन लग लगा उस के।

है कलेजा सुलग रहा जिस का।

तो भला क्या कमाल है कवि में।

जो सका कर कमल न नेजे को।

गोद में प्यार है पला जिस की।

गोद देवे न उस कलेजे को।

चाँद को छील चाँदनी को, मल।

रंग दे लाल, लाल रेजे में।

कवि कहा कर बदल कमल दल को।

छेद कर दे न छबि कलेजे में।

पैठ करके प्यार जैसे पैंठ में।

दाम खोटी चाट का पाता रहा।

जो कभी चोटी चमोटी के लगे।

कवि-कलेजा चोट खा जाता रहा।