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"फटकार / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर

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13:06, 18 मार्च 2014 का अवतरण

 बात चिकनी कपट भरी कह कर।

जब कि वह जाति पर बला लावे।

जब रही खींचतान में पड़ती।

जीभ तब खैंच क्यों न जी जावे।

पेट की चापलूसियों में पड़।

गालियाँ जो कि जाति को देवें।

चाहिए तो बिना रुके हिचके।

जीभ उन की निकाल ही लेवें।

जो कि बेढंग चल करे चौपट।

चाहिए ऐंच कर उसे दम लें।

जाति की नाक कट गई जिस से।

काट उस जीभ को न क्यों हम लें।

वार पर वार कर रही जब थी।

तब भला किस तरह, तरह देते।

पड़ गई जाति गाढ़ में जिस से।

काढ़ उस जीभ को न क्यों लेते।

जाति के काम जब नहीं आते।

डींग हम मारते रहे तब क्या।

जब कि फटकार ही रही पड़ती।

मूँछ फटकारते रहे तब क्या।

जाति के देख देख कर दुखड़े।

जो न बेताब बन उन्हें पूछें।

रोंगटे जो खड़े न हो जावें।

तो रहीं क्या खड़ी खड़ी मूँछें।

जाग तब वै+से सवें+गे, ज्ञान की।

जोत जी में जब कि जगती ही नहीं।

तब भला वै+से हमें जी से लगे।

बात लगती जब कि लगती ही नहीं।

है बहँक इतनी कि कितनी बात को।

ताड़ कर के भी नहीं हम ताड़ते।

है हमारी बात की यह बानगी।

हैं बना कर बात बात बिगाड़ते।

क्यों न बल को तौल लें, होगा बुरा।

बात जी में बेठिकाने की ठने।

क्या किसी की हम गढ़ेंगे हव्यिाँ।

बात गढ़ लेवें अगर गढ़ते बने।

जीभ सड़ जाती न जाने क्यों नहीं।

बेअटक कहते हुए बातें सड़ी।

बात सीधी किस तरह से तब कहें।

बाँट में जब बात टेढ़ी ही पड़ी।

दूर की लेंगे बकेंगे बहक कर।

काम के हित जी हुआ बै ही नहीं।

किस तरह लेंगे खिलौना चाँद का।

बात है, करतूत वु+छ है ही नहीं।

जाति को देख कर पड़ा दुख में।

अब चलेंगे न हम मदद देने।

पड़ गये काम काइयाँपन कर।

लग गये हैं जँभाइयाँ लेने।

है उन्हें छुट्टी कहाँ जो वु+छ करें।

क्या हुआ जो आबरू है जा रही।

लें अगर ऍंगड़ाइयाँ हैं ले रहे।

लें जँभा जो है जँभाई आ रही।

जाति औ प्रीति की अजब जोड़ी।

है बँधी धाक जो बिछुड़ खोती।

आज तक भी जुड़ी न जोड़े से।

है इसी से थुड़ी थुड़ी होती।

जल गया वह मुँह न क्यों जिससे कि हम।

जातिहित को भाड़ में हैं झूँकते।

मुँह छिपा लेवें, मगर मुँह पर भला।

थूकनेवाले न वै+से थूकते।

आज दिन तो हैं कलेजे चिर रहे।

क्या हुआ दो चार उँगली जो चिरी।

क्यों फिराये आँख फिरती ही नहीं।

क्या छुरी अब भी न गरदन पर फिरी।

राह उलटी किस लिए पकड़ी गई।

क्यों घुमाने से नहीं हैं घूमते।

जो ऍंगूठा हैं हमें दिखला रहे।

क्यों ऍंगूठा हैं उन्हीं का चूमते।

हो सकेगा काम तो कोई नहीं।

बात हित की सुन चिटक जाया करें।

चोट जी को तो लगेगी ही नहीं।

उँगलियों को बैठ चटकाया करें।

हो सकेगी बात वै+से दूसरी।

मुँह भलाई से सदा मोड़ा करें।

फोड़ पायें तो रहें घर फोड़ते।

बैठ कर या उँगलियाँ फोड़ा करें।

सूरमापन अगर न धाक रखे।

चाहिए तो चलें न धामकाने।

जो न तलवार को सकें चमका।

तो लगें उँगलियाँ न चमकाने।

बात हित की जमी नहीं जी में।

पग न पाया बिचारपथ में थम।

किस लिए आज हो गये जड़ हैं।

क्या तमाचे जड़े गये हैं कम।

जाति-हित-रुचि जब कि जी में आजमी।

बन गई तब काहिली वै+से सगी।

लाग से लगते नहीं क्यों काम में।

हाथ में तो है नहीं मेहँदी लगी।

किस तरह तो हम निरे पत्थर नहीं।

चोट जी को जब कि लग पाती नहीं।

देख टुकड़ा जाति का छिनते अगर।

सैकड़ों टुकड़े हुई छाती नहीं।

देस का मुँह गया बहुत वु+म्हला।

किस तरह मुँह रहा खिला तेरा।

छिल रहा जाति का कलेजा है।

पर कलेजा कहाँ छिला तेरा।

हौसले की गोद में हित हैं पले।

है जहाँ साहस उमंगें हैं वहीं।

बेदिली वै+से न दिल में घर करें।

पास दिल है पर दिलेरी है नहीं।

देसहित देख जो नहीं पाते।

जातिहित है अगर नहीं भाता।

आँख तो फूट क्यों नहीं जाती।

किस लिए बैठ जी नहीं जाता।

जान में जान तो न आयेगी।

आन भी जायगी चली धीमें।

बात बेजान जाति के हित को।

जो जमाये जमी नहीं जी में।

जाति हित का जाप क्या जपते रहे।

देख जो भय का भयानक मुख भगे।

देस दुख दलने चले क्या दौड़ कर।

पेट में जो दौड़ने चूहे लगे।

तब सकेंगे पाल वै+से देस को।

जब कि है परिवार भी पलता नहीं।

तब चलाये राज वै+से चल सके।

जब चलाये पेट भी चलता नहीं।

है जिसे पेट देस से प्यारा।

जो जने जाति का अहितकारी।

मर गया वह न क्यों जनमते ही।

क्यों गई कोख वह नहीं मारी।

दौड़ कर के जातिहित - मैदान में।

पाँव वै+से वह भला सकता गड़ा।

चल दबे पाँवों परग दो चार ही।

पाँव दबवाना जिसे अपना पड़ा।

किस लिए भाग हैं खड़े होते।

क्यों सुपथ में न पाँव अड़ पाया।

गड़ गये आप क्यों न लाज लगे।

पाँव गाड़े अगर न गड़ पाया।

देस मिल जाय धूल में तो क्या।

भूल है जो उन्हें कहें अहदी।

वे उठें फूल सेज तज वै+से।

पाँव की जायगी बिगड़ मेहँदी।

जी भलाई के लिए है फूलता।

तो समय पर क्यों विफल है हो रहा।

भय हुए फूले समाते आप हैं।

पाँव वै+से फूल जाता तो रहा।

काल के गाल में न कौन गया।

अब कहाँ वेणु, कंस, रावन हैं।

छोड़ कर जाति-पाँव पावन क्यों।

पूजते पाँव हम अपावन हैं।

किस लिए है आँख पर परदा पड़ा।

दिन ब दिन है उठ रहा परदा ढका।

लात पर है लात लगती जा रही।

छूट तलवे का न सहलाना सका।

देसहित और जातिहित पथ में।

चाव से जो नहीं सके चल वे।

तो तुरत जाँय धूल ही में मिल।

जाँय गल पाँव, जाँय जल तलवे।