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13:23, 18 मार्च 2014 का अवतरण
देखना है अगर निकम्मापन।
तो हमें आँख खोल कर देखो।
हैं हमीं टालटूल के पुतले।
जी हमारा टटोल कर देखो।
टाट वै+से नहीं उलट जाता।
जब बुरी चाट के बने चेरे।
दिन पड़े खाट पर बिताते हैं।
काहिली बाँट में पड़ी मेरे।
कायरों का है वहाँ पर जमघटा।
था जहाँ पर बीर का जमता परा।
सूर हम में अब उपजते ही नहीं।
सूरपन है सूर लोगों में भरा।
जाति आँखों की बड़ी अकसीर को।
हैं गया बीता समझते राख से।
देखते हम आँख भर कर क्या उसे।
देख सकते हैं न फूटी आँख से।
क्यों बला में न बोलियाँ पड़तीं।
जब बने जान बूझ कर तुतले।
फूट पड़ती न वाँ बिपद वै+से।
हैं जहाँ बैर फूट के पुतले।
तब बला में न किस तरह फँसते।
जब बला टाल ही नहीं पाते।
हो सकेगा उबार तब वै+से।
जब रहे बार बार उकताते।
बेहतरी किस तरह हिली रहती।
जब रहे काहिली दिखाते हम।
भूल वै+से न तब भला होती।
जब रहे भूल भूल जाते हम।
किस तरह काम हो सके कोई।
जब कि हैं काम कर नहीं पाते।
गुत्थियाँ किस तरह सुलझ सकतीं।
जब रहे हम उलझ उलझ जाते।
हैं अगर देखभाल कर सकते।
क्यों नहीं देखभाल की जाती।
तब भला किस तरह भला होगा।
जब भली बात ही नहीं भाती।
ढंग मन मार बैठ रहने का।
है गया रोम रोम में रम सा।
छूट पाईं लतें न आलस की।
है भला कौन आलसी हम सा।