"पते की बातें / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर
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− | + | क्यों जम्हाई आ रही है बेतरह। | |
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इस तरह से आँख क्यों है झप रही। | इस तरह से आँख क्यों है झप रही। | ||
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देख लो सब ओर क्या है हो रहा। | देख लो सब ओर क्या है हो रहा। | ||
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बात सुन लो, आँख खोलो तो सही। | बात सुन लो, आँख खोलो तो सही। | ||
जाति को है अगर जिला रखना। | जाति को है अगर जिला रखना। | ||
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तो न मीठी को मान लें खट्टी। | तो न मीठी को मान लें खट्टी। | ||
− | + | भेद का बाँध बाँधती बेला। | |
− | भेद का | + | आँख पर बाँध लें न हम पट्टी। |
− | + | ||
− | आँख पर | + | |
जोत में आइये जतन करिये। | जोत में आइये जतन करिये। | ||
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जागिये हो रहा सबेरा है। | जागिये हो रहा सबेरा है। | ||
− | + | बन गये हैं इसी लिए अंधे। | |
− | बन गये हैं इसी लिए | + | आँख के सामने अँधेरा है। |
− | + | ||
− | आँख के सामने | + | |
हैं बड़े ही कपूत कायर हम। | हैं बड़े ही कपूत कायर हम। | ||
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जो बुरी तेवरियाँ हमें न खलें। | जो बुरी तेवरियाँ हमें न खलें। | ||
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ठोकरें देख जाति को खाते। | ठोकरें देख जाति को खाते। | ||
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ठीकरी आँख पर अगर रख लें। | ठीकरी आँख पर अगर रख लें। | ||
तो बला यों न बेलती पापड़। | तो बला यों न बेलती पापड़। | ||
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पाँव जाता न यों दुखों का जम। | पाँव जाता न यों दुखों का जम। | ||
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तो न खुल खेलती मुसीबत यों। | तो न खुल खेलती मुसीबत यों। | ||
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जो खुला आँख कान रखते हम। | जो खुला आँख कान रखते हम। | ||
देख कर भी न देख जो पावें। | देख कर भी न देख जो पावें। | ||
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वे सजग और ढंग से हो लें। | वे सजग और ढंग से हो लें। | ||
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खुल सकें या न खुल सकें आँखें। | खुल सकें या न खुल सकें आँखें। | ||
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क्या खुली बात को भला खोलें। | क्या खुली बात को भला खोलें। | ||
सार को प्यार जो नहीं करते। | सार को प्यार जो नहीं करते। | ||
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क्यों न रुचती उन्हें घुनी बातें। | क्यों न रुचती उन्हें घुनी बातें। | ||
− | + | वे गुनी की गुनी सुनें कैसे। | |
− | वे गुनी की गुनी सुनें | + | |
− | + | ||
जब सुनी हैं बनी चुनी बातें। | जब सुनी हैं बनी चुनी बातें। | ||
− | छेदने | + | छेदने बेधने बहकने से। |
− | + | ||
काम लेवें न मुँह अगर खोलें। | काम लेवें न मुँह अगर खोलें। | ||
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जाति को है सँभाल लेना तो। | जाति को है सँभाल लेना तो। | ||
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जीभ को हम सँभाल कर बोलें। | जीभ को हम सँभाल कर बोलें। | ||
है घड़ा जो नहीं भरा पूरा। | है घड़ा जो नहीं भरा पूरा। | ||
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क्यों न तो बार बार वह छलके। | क्यों न तो बार बार वह छलके। | ||
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जाति-हित का सवाल कोई भी। | जाति-हित का सवाल कोई भी। | ||
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कर सके हल न पेट के हलके। | कर सके हल न पेट के हलके। | ||
सुन सकें बात हित भरी वे ही। | सुन सकें बात हित भरी वे ही। | ||
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हैं न जो लोग कान के बहरे। | हैं न जो लोग कान के बहरे। | ||
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क्यों कहें वे न पेट की बातें। | क्यों कहें वे न पेट की बातें। | ||
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हैं न जो लोग पेट के गहरे। | हैं न जो लोग पेट के गहरे। | ||
हम निबल भूल पर बहुत बिगड़े। | हम निबल भूल पर बहुत बिगड़े। | ||
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पर सबल के सितम हुए न जगे। | पर सबल के सितम हुए न जगे। | ||
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लग गये पाँव क्यों गये जल भुन। | लग गये पाँव क्यों गये जल भुन। | ||
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लग गई क्यों न आग लात लगे। | लग गई क्यों न आग लात लगे। | ||
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10:39, 20 मार्च 2014 के समय का अवतरण
क्यों जम्हाई आ रही है बेतरह।
इस तरह से आँख क्यों है झप रही।
देख लो सब ओर क्या है हो रहा।
बात सुन लो, आँख खोलो तो सही।
जाति को है अगर जिला रखना।
तो न मीठी को मान लें खट्टी।
भेद का बाँध बाँधती बेला।
आँख पर बाँध लें न हम पट्टी।
जोत में आइये जतन करिये।
जागिये हो रहा सबेरा है।
बन गये हैं इसी लिए अंधे।
आँख के सामने अँधेरा है।
हैं बड़े ही कपूत कायर हम।
जो बुरी तेवरियाँ हमें न खलें।
ठोकरें देख जाति को खाते।
ठीकरी आँख पर अगर रख लें।
तो बला यों न बेलती पापड़।
पाँव जाता न यों दुखों का जम।
तो न खुल खेलती मुसीबत यों।
जो खुला आँख कान रखते हम।
देख कर भी न देख जो पावें।
वे सजग और ढंग से हो लें।
खुल सकें या न खुल सकें आँखें।
क्या खुली बात को भला खोलें।
सार को प्यार जो नहीं करते।
क्यों न रुचती उन्हें घुनी बातें।
वे गुनी की गुनी सुनें कैसे।
जब सुनी हैं बनी चुनी बातें।
छेदने बेधने बहकने से।
काम लेवें न मुँह अगर खोलें।
जाति को है सँभाल लेना तो।
जीभ को हम सँभाल कर बोलें।
है घड़ा जो नहीं भरा पूरा।
क्यों न तो बार बार वह छलके।
जाति-हित का सवाल कोई भी।
कर सके हल न पेट के हलके।
सुन सकें बात हित भरी वे ही।
हैं न जो लोग कान के बहरे।
क्यों कहें वे न पेट की बातें।
हैं न जो लोग पेट के गहरे।
हम निबल भूल पर बहुत बिगड़े।
पर सबल के सितम हुए न जगे।
लग गये पाँव क्यों गये जल भुन।
लग गई क्यों न आग लात लगे।