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"बस्तियों से बाहर(कविता) / जयप्रकाश कर्दम" के अवतरणों में अंतर
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20:32, 20 मार्च 2014 का अवतरण
बन्द कर मेरी रौशनी के सुराख
वे उजालों की सैर करते हैं
वसुधैवों को एक कुटुम्ब बताने वाले
जाति, वर्णों में बंटे फिरते हैं
खूब आता है सताने का सलीका उनको
न्याय के नाम पर वो दंड दिया करते हैं
किसने किसको क्या दिया, लिया, छीना
बात उठती है तो परेशान हुआ करते हैं
सुना है चान्द और मंगल पर बसेंगी बस्ती
कहां होंगे जो बस्तियों से बाहर रहते हैं।