भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बेबसी / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो (Sharda suman moved page बेबसी to बेबसी / हरिऔध)
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
बेबसी, हो सदा बुरा तेरा।
+
बेबसी, हो सदा बुरा तेरा।
 
+
 
यह कहाँ ताब जो करें चूँ तक।
 
यह कहाँ ताब जो करें चूँ तक।
 
 
हम भला कान क्या हिलायें।
 
हम भला कान क्या हिलायें।
 
 
कान पर रेंगती नहीं जूँ तक।
 
कान पर रेंगती नहीं जूँ तक।
  
 
देसहित का काम करने के समय।
 
देसहित का काम करने के समय।
 
+
हम न यों ही डालते कंधे रहे।
हम न योंही डालते कंधो रहे।
+
 
+
 
झंझटों में डाल डावाँडोल कर।
 
झंझटों में डाल डावाँडोल कर।
 
+
पेट के धंधे किये अंधे रहे।
पेट के धांधो किये अंधो रहे।
+
  
 
लाभ गहरा किस तरह तो हो सके।
 
लाभ गहरा किस तरह तो हो सके।
 
 
हाथ लग पाया अगर गहरा नहीं।
 
हाथ लग पाया अगर गहरा नहीं।
 
+
हम भला कैसे ठहर पाते वहाँ।
हम भला वै+से ठहर पाते वहाँ।
+
 
+
 
पाँव ठहराये जहाँ ठहरा नहीं।
 
पाँव ठहराये जहाँ ठहरा नहीं।
  
 
छूट तो पीछा सका दुख से कहाँ।
 
छूट तो पीछा सका दुख से कहाँ।
 
 
तो मुसीबत है कहाँ पीछे हटी।
 
तो मुसीबत है कहाँ पीछे हटी।
 
 
हाथ की जो हथकड़ी टूटी नहीं।
 
हाथ की जो हथकड़ी टूटी नहीं।
 
 
जो न बेड़ी पाँव की काटे कटी।
 
जो न बेड़ी पाँव की काटे कटी।
  
 
गड़ गये, सौ सौ मनों के बन गये।
 
गड़ गये, सौ सौ मनों के बन गये।
 
 
अड़ गये, हैं राह पर आये कहाँ।
 
अड़ गये, हैं राह पर आये कहाँ।
 
+
पैठने को जाति हित के पैंठ में।
पैठने को जातिहित के पैंठ में।
+
ये हमारे पाँव उठ पाये कहाँ।
 
+
हमारे पाँव उठ पाये कहाँ।
+
  
 
और दूभर हुआ हमें जीना।
 
और दूभर हुआ हमें जीना।
 
 
मन, थके मार, मर नहीं पाता।
 
मन, थके मार, मर नहीं पाता।
 
 
हैं उतरते अकड़ अखाड़े में।
 
हैं उतरते अकड़ अखाड़े में।
 
 
पैंतरा पाँव भर नहीं पाता।
 
पैंतरा पाँव भर नहीं पाता।
  
जातिहित पथ न देख तै होते।
+
जाति हित पथ न देख तै होते।
 
+
 
रुचि बहुत बार बार घबराई।
 
रुचि बहुत बार बार घबराई।
 
 
राह भारी हुए भर आया जी।
 
राह भारी हुए भर आया जी।
 
 
भर गये पाँव, आँख भर आई।
 
भर गये पाँव, आँख भर आई।
  
 
तंग है कर रही जगह तंगी।
 
तंग है कर रही जगह तंगी।
 
 
हैं बखेड़े तमाम तो 'तै' से।
 
हैं बखेड़े तमाम तो 'तै' से।
 
 
वे समेटे सिमिट नहीं पाते।
 
वे समेटे सिमिट नहीं पाते।
 +
पाँव लेवें समेट हम कैसे।
  
पाँव लेवें समेट हम वै+से।
+
फ़ैलते देख पाँव औरों के।
 
+
पै+लते देख पाँव औरों के।
+
 
+
 
वे भला क्यों नहीं अकड़ जाते।
 
वे भला क्यों नहीं अकड़ जाते।
 
 
चाहता हूँ सिकोड़ लेना मैं।
 
चाहता हूँ सिकोड़ लेना मैं।
 
+
पाँव मेरे सिकुड़ नहीं पाते।
पाँव मेरे सिवु+ड़ नहीं पाते।
+
  
 
बेबसी बाँट में पड़ी जब है।
 
बेबसी बाँट में पड़ी जब है।
 
 
जायगी नुच न किस लिए बोटी।
 
जायगी नुच न किस लिए बोटी।
 
 
चोट पर चोट तब न क्यों होगी।
 
चोट पर चोट तब न क्यों होगी।
 
 
जब दबी पाँव के तले चोटी।
 
जब दबी पाँव के तले चोटी।
  
 
हर तरह कर बुराइयाँ अपनी।
 
हर तरह कर बुराइयाँ अपनी।
 
 
वे कलें और के भले की हैं।
 
वे कलें और के भले की हैं।
 
+
जातियाँ बेतरह दबी कुचली।
जातियाँ बेतरह दबी वु+चली।
+
 
+
 
चींटियाँ पाँव के तले की हैं।
 
चींटियाँ पाँव के तले की हैं।
  
 
थक गये बल कर, निकल पाये नहीं।
 
थक गये बल कर, निकल पाये नहीं।
 
+
जा रहे हैं और वे नीचे धँसे।
जा रहे हैं और वे नीचे धाँसे।
+
 
+
 
दिल दलक कर बेतरह दलके न क्यों।
 
दिल दलक कर बेतरह दलके न क्यों।
 
 
हैं हमारे पाँव दलदल में फँसे।
 
हैं हमारे पाँव दलदल में फँसे।
 
</poem>
 
</poem>

15:57, 22 मार्च 2014 के समय का अवतरण

बेबसी, हो सदा बुरा तेरा।
यह कहाँ ताब जो करें चूँ तक।
हम भला कान क्या हिलायें।
कान पर रेंगती नहीं जूँ तक।

देसहित का काम करने के समय।
हम न यों ही डालते कंधे रहे।
झंझटों में डाल डावाँडोल कर।
पेट के धंधे किये अंधे रहे।

लाभ गहरा किस तरह तो हो सके।
हाथ लग पाया अगर गहरा नहीं।
हम भला कैसे ठहर पाते वहाँ।
पाँव ठहराये जहाँ ठहरा नहीं।

छूट तो पीछा सका दुख से कहाँ।
तो मुसीबत है कहाँ पीछे हटी।
हाथ की जो हथकड़ी टूटी नहीं।
जो न बेड़ी पाँव की काटे कटी।

गड़ गये, सौ सौ मनों के बन गये।
अड़ गये, हैं राह पर आये कहाँ।
पैठने को जाति हित के पैंठ में।
ये हमारे पाँव उठ पाये कहाँ।

और दूभर हुआ हमें जीना।
मन, थके मार, मर नहीं पाता।
हैं उतरते अकड़ अखाड़े में।
पैंतरा पाँव भर नहीं पाता।

जाति हित पथ न देख तै होते।
रुचि बहुत बार बार घबराई।
राह भारी हुए भर आया जी।
भर गये पाँव, आँख भर आई।

तंग है कर रही जगह तंगी।
हैं बखेड़े तमाम तो 'तै' से।
वे समेटे सिमिट नहीं पाते।
पाँव लेवें समेट हम कैसे।

फ़ैलते देख पाँव औरों के।
वे भला क्यों नहीं अकड़ जाते।
चाहता हूँ सिकोड़ लेना मैं।
पाँव मेरे सिकुड़ नहीं पाते।

बेबसी बाँट में पड़ी जब है।
जायगी नुच न किस लिए बोटी।
चोट पर चोट तब न क्यों होगी।
जब दबी पाँव के तले चोटी।

हर तरह कर बुराइयाँ अपनी।
वे कलें और के भले की हैं।
जातियाँ बेतरह दबी कुचली।
चींटियाँ पाँव के तले की हैं।

थक गये बल कर, निकल पाये नहीं।
जा रहे हैं और वे नीचे धँसे।
दिल दलक कर बेतरह दलके न क्यों।
हैं हमारे पाँव दलदल में फँसे।