भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था / गोपालदास "नीरज"" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"
 
|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"
 
}}  
 
}}  
   
+
{{KKCatGhazal}}
दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था|<br>
+
<poem>
तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर सख्त न था|<br><br>
+
दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था|
 +
तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर सख्त न था।
  
इतने मसरूफ़ थे हम जाने के तैयारी में,<br>
+
इतने मसरूफ़ थे हम जाने के तैयारी में,
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था|<br><br>
+
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था।
  
मैं जिस की खोज में ख़ुद खो गया था मेले में,<br>
+
मैं जिस की खोज में ख़ुद खो गया था मेले में,
कहीं वो मेरा ही एहसास तो कमबख्त न था|<br><br>
+
कहीं वो मेरा ही एहसास तो कमबख्त न था।
  
जो ज़ुल्म सह के भी चुप रह गया न ख़ौल उठा,<br>
+
जो ज़ुल्म सह के भी चुप रह गया न ख़ौल उठा,
वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था|<br><br>
+
वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था।
  
उन्हीं फ़क़ीरों ने इतिहास बनाया है यहाँ,<br>
+
उन्हीं फ़क़ीरों ने इतिहास बनाया है यहाँ,
जिन पे इतिहास को लिखने के लिए वक्त न था|<br><br>
+
जिन पे इतिहास को लिखने के लिए वक्त न था।
  
शराब कर के पिया उस ने ज़हर जीवन भर,<br>
+
शराब कर के पिया उस ने ज़हर जीवन भर,
हमारे शहर में 'नीरज' सा कोई मस्त न था|<br><br>
+
हमारे शहर में 'नीरज' सा कोई मस्त न था।
 +
</poem>

10:50, 11 जून 2014 के समय का अवतरण

दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था|
तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर सख्त न था।

इतने मसरूफ़ थे हम जाने के तैयारी में,
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था।

मैं जिस की खोज में ख़ुद खो गया था मेले में,
कहीं वो मेरा ही एहसास तो कमबख्त न था।

जो ज़ुल्म सह के भी चुप रह गया न ख़ौल उठा,
वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था।

उन्हीं फ़क़ीरों ने इतिहास बनाया है यहाँ,
जिन पे इतिहास को लिखने के लिए वक्त न था।

शराब कर के पिया उस ने ज़हर जीवन भर,
हमारे शहर में 'नीरज' सा कोई मस्त न था।