"प्रजातंत्र का राजा / प्रभुदयाल श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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कभी शेर ने बकरी को, न घूरा न गुर्राया| | कभी शेर ने बकरी को, न घूरा न गुर्राया| | ||
बकरी ने जब भी जी चाहा, उससे हाथ मिलाया| | बकरी ने जब भी जी चाहा, उससे हाथ मिलाया| | ||
− | शेर भाई बकरी दीदी के ,जब तब घर हो आते| | + | शेर भाई बकरी दीदी के, जब तब घर हो आते| |
बकरी के बच्चे मामा को, गुड़ की चाय पिलाते| | बकरी के बच्चे मामा को, गुड़ की चाय पिलाते| | ||
बकरी भी भाई के घर पर, बड़े शान से जाती| | बकरी भी भाई के घर पर, बड़े शान से जाती| | ||
कभी मुगेड़े भजिये लड्डू, रसगुल्ले खा आती| | कभी मुगेड़े भजिये लड्डू, रसगुल्ले खा आती| | ||
किंतु अचानक ही जंगल में, प्रजातंत्र घुस आया| | किंतु अचानक ही जंगल में, प्रजातंत्र घुस आया| | ||
− | और प्रजा को मिली शक्तियों ,से अवगत करवाया| | + | और प्रजा को मिली शक्तियों, से अवगत करवाया| |
उँच नीच होता क्या होता, छोटा और बड़ा क्या| | उँच नीच होता क्या होता, छोटा और बड़ा क्या| | ||
जाति धर्म वर्गों में होता, कलह और झगड़ा क्या| | जाति धर्म वर्गों में होता, कलह और झगड़ा क्या| | ||
− | निर्धन और धनी लोगों में ,बड़ा फासला होता| | + | निर्धन और धनी लोगों में, बड़ा फासला होता| |
− | एक रहा करता महलों में ,एक सड़क पर सोता| | + | एक रहा करता महलों में, एक सड़क पर सोता| |
शेर भाई को जैसे ही, यह बात समझ में आई| | शेर भाई को जैसे ही, यह बात समझ में आई| | ||
− | तोड़ी बकरी की गर्दन,और बड़े स्वाद से खाई| | + | तोड़ी बकरी की गर्दन, और बड़े स्वाद से खाई| |
− | जो भी पशु मिलता है | + | जो भी पशु मिलता है उसको, उसे मार खा जाता| |
जंगल में अब प्रजातंत्र का, वह राजा कहलाता| | जंगल में अब प्रजातंत्र का, वह राजा कहलाता| | ||
प्रजातंत्र का मतलब भी वह, दुनिया को समझाता| | प्रजातंत्र का मतलब भी वह, दुनिया को समझाता| | ||
− | इसी तंत्र में जिसकी मर्जी | + | इसी तंत्र में जिसकी मर्जी, जो हो वह कर पाता|</poem> |
10:10, 30 जून 2014 के समय का अवतरण
एक कहानी बड़ी पुरानी, कहती रहती नानी|
शेर और बकरी पीते थे, एक घाट पर पानी|
कभी शेर ने बकरी को, न घूरा न गुर्राया|
बकरी ने जब भी जी चाहा, उससे हाथ मिलाया|
शेर भाई बकरी दीदी के, जब तब घर हो आते|
बकरी के बच्चे मामा को, गुड़ की चाय पिलाते|
बकरी भी भाई के घर पर, बड़े शान से जाती|
कभी मुगेड़े भजिये लड्डू, रसगुल्ले खा आती|
किंतु अचानक ही जंगल में, प्रजातंत्र घुस आया|
और प्रजा को मिली शक्तियों, से अवगत करवाया|
उँच नीच होता क्या होता, छोटा और बड़ा क्या|
जाति धर्म वर्गों में होता, कलह और झगड़ा क्या|
निर्धन और धनी लोगों में, बड़ा फासला होता|
एक रहा करता महलों में, एक सड़क पर सोता|
शेर भाई को जैसे ही, यह बात समझ में आई|
तोड़ी बकरी की गर्दन, और बड़े स्वाद से खाई|
जो भी पशु मिलता है उसको, उसे मार खा जाता|
जंगल में अब प्रजातंत्र का, वह राजा कहलाता|
प्रजातंत्र का मतलब भी वह, दुनिया को समझाता|
इसी तंत्र में जिसकी मर्जी, जो हो वह कर पाता|