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कभी शेर ने बकरी को, न घूरा न गुर्राया|
बकरी ने जब भी जी चाहा, उससे हाथ मिलाया|
शेर भाई बकरी दीदी के ,जब तब घर हो आते|
बकरी के बच्चे मामा को, गुड़ की चाय पिलाते|
बकरी भी भाई के घर पर, बड़े शान से जाती|
कभी मुगेड़े भजिये लड्डू, रसगुल्ले खा आती|
किंतु अचानक ही जंगल में, प्रजातंत्र घुस आया|
और प्रजा को मिली शक्तियों ,से अवगत करवाया|
उँच नीच होता क्या होता, छोटा और बड़ा क्या|
जाति धर्म वर्गों में होता, कलह और झगड़ा क्या|
निर्धन और धनी लोगों में ,बड़ा फासला होता|एक रहा करता महलों में ,एक सड़क पर सोता|
शेर भाई को जैसे ही, यह बात समझ में आई|
तोड़ी बकरी की गर्दन,और बड़े स्वाद से खाई|जो भी पशु मिलता है उसको , उसे मार खा जाता|
जंगल में अब प्रजातंत्र का, वह राजा कहलाता|
प्रजातंत्र का मतलब भी वह, दुनिया को समझाता|
इसी तंत्र में जिसकी मर्जी ,जो हो वह कर पाता|</poem>
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