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रूसे ककी छाती मा चपटी
कसि नंगि-धगंगी।
पछियाहे के चबुकन ते फिरि
थहर-थहर थहरायि रही-
ऑधी का अगुआ बारूकी
बारूद चलावयि,
अब टूटी, अब लूटी अयिसयि
सोचि-सोचि सकुचायि रही;
यह सूखि डार सिरसा वाली।
यह बहइ आयि पंदरही पहिले
हरियरि सुन्दरि!
सजी-बजी फूलन ते फिरि-फिरि
फूलि-फूलि लहरायि रही।
पुरवाई जिहि के गाले मा
चुटकी जिटकायिसि!
क्वयिली घंटा घंटा पीछे
यिहे क गीतु सुनायि रही
अब सूखि डार सिरसा वाली।
चारे दिन पहिले चयित<ref>विक्रम संवत् का प्रथम माह ‘चैत्र’</ref> पुरनमासी
क चंदरमा-
घूरि-घूरि यिहिका देखिसि,
यह मटकि-मटकि मटकायि रही।
पपिहा के पिउ पर जिहि के जिउ,
मा छूटि गुदगुदी-
संघ सहेलिन का मदमहती
के किरला<ref>क्रिया कलाप, करतूत, करतब</ref> समुझायि रही।
यह तउनि डार सिरसा वाली।
उदभउ यितनी इतरानि चली
तनि तुनुकि उताने
कहाँ जानि पायिसि विधि-गति
जो मिटी न मेटे आयि रही।
बिरवा मा किरवा छिपा रहयि,
छलि छकि कयि, काटिसि
हालि रही, मुरझायि रही,
अकुलायि<ref>आकुल होना</ref> रही, अउॅघायि रही।
तब सूखि डारि सिरसा वाली।
साथ की सबयि सूखी देहीं का
झुँकि-झुँकि चूमयिं,
मुलु का कोटिउ जतन किहे
यह यी जामा हरियायि रही?
जब पॉच भूत<ref>मानव शरीर निर्माण के पाँच तत्व या पाँच भूत</ref> अपनी किरिया<ref>क्रिया, शपथ, सौगन्ध</ref>
ते अलग-ब्यलॅग भे
पंछी पिंजरा छॉडि चला,
तब का जानी को कहॉ रही-
फिरि कमिसि डार सिरसा वाली!