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"प्यार जब जिस्म की चीखों में दफ़न हो जाये / कुमार विश्वास" के अवतरणों में अंतर

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प्यार जब जिस्म की चीखों में दफ़न हो जाये ,
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प्यार जब जिस्म की चीखों में दफ़न हो जाए,
ओढ़नी इस तरह उलझे कि कफ़न हो जाये ,
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ओढ़नी इस तरह उलझे कि कफ़न हो जाए,
  
घर के एहसास जब बाजार की शर्तो में ढले ,
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घर के एहसास जब बाजार की शर्तो में ढले,
अजनबी लोग जब हमराह बन के साथ चले ,
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लबों से आसमां तक सबकी दुआ चुक जाये ,
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भीड़ का शोर जब कानो के पास रुक जाए,
  
सितम की मारी हुई वक्त की इन आँखों में ,
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नमी हो लाख मगर फिर भी मुस्कुराएंगे ,
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नमी हो लाख मगर फिर भी मुस्कुराएंगे,
  
 
अँधेरे वक्त में भी गीत गाये जायेंगे...
 
अँधेरे वक्त में भी गीत गाये जायेंगे...
  
लोग कहते रहें इस रात की सुबह ही नहीं ,
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कह दे सूरज कि रौशनी का तजुर्बा ही नहीं ,
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लोहा ले जाएँ वो लोहे की धार ले जाएँ,
  
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जिसकी चोखट से तराजू तक हो उन पर गिरवी
 
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उस अदालत में हमें बार बार ले जाएँ
 
उस अदालत में हमें बार बार ले जाएँ
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हम अगर गुनगुना भी देंगे तो वो सब के सब
 
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हम को कागज पे हरा के भी हार जायेंगे
 
हम को कागज पे हरा के भी हार जायेंगे
अँधेरे वक्त में भी गीत गाये जायेंगे...
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अँधेरे वक्त में भी गीत गाए जायेंगे...
 
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23:26, 29 जुलाई 2014 का अवतरण

प्यार जब जिस्म की चीखों में दफ़न हो जाए,
ओढ़नी इस तरह उलझे कि कफ़न हो जाए,

घर के एहसास जब बाजार की शर्तो में ढले,
अजनबी लोग जब हमराह बन के साथ चले,

लबों से आसमां तक सबकी दुआ चुक जाए,
भीड़ का शोर जब कानो के पास रुक जाए,

सितम की मारी हुई वक्त की इन आँखों में,
नमी हो लाख मगर फिर भी मुस्कुराएंगे,

अँधेरे वक्त में भी गीत गाये जायेंगे...

लोग कहते रहें इस रात की सुबह ही नहीं,
कह दे सूरज कि रौशनी का तजुर्बा ही नहीं,

वो लडाई को भले आर पार ले जाएँ,
लोहा ले जाएँ वो लोहे की धार ले जाएँ,

जिसकी चोखट से तराजू तक हो उन पर गिरवी
उस अदालत में हमें बार बार ले जाएँ

हम अगर गुनगुना भी देंगे तो वो सब के सब
हम को कागज पे हरा के भी हार जायेंगे

अँधेरे वक्त में भी गीत गाए जायेंगे...