"विडम्बना / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’" के अवतरणों में अंतर
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पेटक नापेसँ स्वतन्त्रतोकेँ हम नापि रहल छी,
अपने घरमे आगि लगा सब सुखसँ तापि रहल छी।
जे स्वतन्त्रता पेट भरय नहि, तकरा हम लतियाबी।
पर-उपदेश कुशल बनि अपना अन्रतकेँ पतियाबी।
पेट भरय से थिक आवश्यक, ततय न किछु मतभेद,
ततबा सुविधा रहय जाहिसँ चलय लोक आ वेद।
किन्तु जीवनक साध्य पेटकेँ हम सब मानि चलल छी,
कहियो छलहुँ हिमालय, सम्प्रति गलि गलि पानि बनल छी।
जे मनुक्ख, से स्वतन्त्रता-हित करइछ जीवन अर्पण,
दुइ टाङक पशु पेटक खातिर करइछ आत्म-समपर्ण।
एहन मनुज आ श्वान संघमे अन्तर की रहि जाइछ,
अनकर परसल पात छीनि खयबा लय जे लड़ि जाइछ?
थिक स्वतन्त्रता आवश्यक हो मानवताक विकास
भारतीय जीवन क लक्ष्य नहि केवल भोग-विलास।
नहि स्वतन्त्रता उच्छंृखलताकेर कतहु पर्याय,
नव सर्जन ओ गुण अर्जन हित ई थिक सरल उपाय।
रोटीसँ लगबै अछि जे क्यो एहन अमूल्यक मूल्य,
से समाज बुझनुकक नजरिमे थिक निश्चय पशु तुल्य।
ओ स्वतन्त्र रहि सकत कोना जकरा न आत्म-सम्मान।
श्वास तथा प्रश्वास क्रिया करितहु थिक मृतक समान।
भेल कते बलिदान, तखन भेटल अछि एहन सुयोग
कयलनि युग निर्माता सत्य अहिंसा केर प्रयोग।
ताहि सत्यकेँ बिसरि, असत्यक आश्रय हम सब लेल,
स्वावलम्बनक पाठ न पढ़लहुँ, बिगड़ि गेल सब खेल।
आबहु समय अछैत भारतक गौरव हो रखबाक,
हो अभिलाषा मनमे सरिपहुँ एकर सुफल चिखबाक
तँ पेटे भरबा लय जनु क्यो एना अहुछिया काटी,
भौतिकताक छोड़िकय नाङड़ि धरी अपन परिपाटी।
गौरवमय अपना इतिहासक घटने सब बिसरलछी
हन्त! बढ़य जग आगाँ, हम सब पाछेँ दिस ससरल छी।