"माथ रहत हल्लुक / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’" के अवतरणों में अंतर
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नीक कयल हम सब
जे पहिनेसँ सोचि लेल।
घरमेजँ रखितहूँ तँ जल्ला-मकड़ा डर,
पिलुआ लगबे करैत,
नष्टे ने भऽ जाइत।
दानो जँ करितहुँ
तँ एहन दान लेनिहार भेटबो करैत कतऽ?
अपने अजीर्ण एखन दुनियाँ केँ भेल छैक।
तखन किए दान लऽ कऽ
आफद सिर थोपि लेत?
मानिलियऽ जँ कदाच
याचक भेटबो करैत,
दाताकेँ आइ-काल्हि यशो कतहु दैत छैक?
महगी कतबा रहौक
वेचबो जँ करितहँु तँ
दामे तँ कोनहुना
भुस्सा थिकैक किने,
माल-जाल खाइत छैक
मानि लियऽ बडदेकेँ दैत छिऐ खाय लेल
गाड़ी ओ हऽर मे तँ जाकऽ बहैत अछि
सैरियतो दैत अछि।
गाय महिंस खाइत अछि तँ
दूध बना दैत अछि।
किन्तु हमर अहाँक ‘अकिल’
माल-जाल खा सकैछ?
कुकुरो बिलाड़ि-
कहू एहिसँ पोसा सकैछ?
एहन जे बेकार वस्तु
माथ पर उठौने सब
व्यर्थ ने घुमैत छलहुँ।
नीक कयल जे
जुमाय खत्तामे फेकि देल।
माथ रहत हल्लुक
तँ सैह कोन थोड़ थीक?
ई यदि नहि करितहुँ तँ
लोकतन्त्रकेर सीर
माँटि ने पकड़ि लितैक,
आइ धरिक कयल-धयल
सबटा विनष्ट होइत।
एखने ने नीक छैक,
फुनगी छै नीचाँ
आ जड़ि एकर ऊपर छै
‘‘ऊर्ध्वमूल मधः शाख’’
अपने भगवान कृष्ण
गीतामे कहने छथि।
फुनगी पर ठहुरी सब पातर ने होइत छैक
जड़ि मोट रहले पर गाछ ने टिकैत छैक।
लोकतन्त्र केर जड़ि दिल्लीमे देखि लियौ।
नीक कयल हम सब जे
अपन-अपन अकिलकेँ
जोरसँ जुमाय बीच खत्तामे फेकि देल।
नहि तँ विचार करू
आनलोक अपना की
अनको समटैत अछि।
हम सब छी।
कुत्ताकेँ बीचोबीच फाड़ि फाड़ि
ईर्ष्यें नाङड़ि कटाय
हिस्सा बँटैत छी,
अपने सुनगाय आगि अनका डँटैत छी।