"बरसात की बहारें / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> हैं इ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
14:32, 10 सितम्बर 2014 का अवतरण
हैं इस हवा में क्या-क्या बरसात की बहारें।
सब्जों की लहलहाहट,बाग़ात की बहारें।
बूँदों की झमझमाहट, क़तरात की बहारें।
हर बात के तमाशे, हर घात की बहारे।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।
बादल लगा टकोरें, नौबत की गत लगावें।
झींगर झंगार अपनी, सुरनाइयाँ बजावें।
कर शोर मोर बगले, झड़ियों का मुँह बुलावें।
पी -पी करें पपीहे, मेंढक मल्हारें गावें।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।
मारें है मौज डाबर दरिया रमड़ रहे हैं
मोर-ओ-पपीहे कोयक क्या-क्या उमड़ रहे हैं
झड़ कर रही हैं झाड़ियाँ नाले उमड़ रहे हैं
बरसे है मेह झड़ाझड़ बादल घुमड़ रहे हैं
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।
क्या-क्या रखे हए है या रब सामान तेरी कुदरत।
बदले है रंग क्या- क्या हर आन तेरी कुदरत।
सब मस्त हो रहे हैं, पहचान तेरी कुदरत।
तीतर पुकारते है, 'सुबहान तेरी कुदरत'।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।
जंगल सब अपने तन पर हरियाली सज रहे हैं
गुल-फूल झाड़ बूटे कर अपनी धज रहे हैं
बिजली चमक रही है बादल गरज रहे हैं
अल्लाह के नक़ारे नौबत के बज रहे हैं
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।
बादल लगा टकोरें नौबत की गत लगावें
झींगुर झंगार अपनी सुरनाइयाँ बजावें
कर शोर मोर-बगुले झाड़ियों का मुँह हिलावें
पी-पी करें पपीहे मेढ़क मल्हार गावें
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।
हर जा बिछा है सब्ज़ा हरे बिछौने
कुदरत के बिछ रहे हैं हर जा हरे बिछौने
जंगलों में हो रहे हैं पैदा हरे बिछौने
बिछवा दिए हैं हक़ ने क्या-क्या हरे बिछौने
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।
सब्जों की लहलहाहट कुछ अब्र की सियाही
और छा रही घटाएँ सूर्ख़ औ सफ़ेद, काही
सब भीगते हैं घर-घर ले माह-ता-ब-माही
ये रंग कौन रंगे तेरे सिवा इलाही
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।
क्या-क्या रखे हैं या रब सामान तेरी क़ुदरत
बदले हैं रंग क्या-क्या हर आन तेरी क़ुदरत
सब मस्त हो रहे हैं पहचान तेरी क़ुदरत
तीतर पुकारते हैं सुबहान तेरी क़ुदरत
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।
कोयल की कूक में भी तेरा ही नाम हैगा
और मोर की रटल में तेरा पयाम हैगा
ये रंग औ मजे का जो सुबह-ओ-शाम हैगा
ये और का नहीं है तेरा ही काम हैगा
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।
बोलें बये बटेरे कुमरी पुकारे कू कू
पी-पी करे पपीहा बगलें पुकारे तू तू
क्या हुदहुदों की हुकहुक़ क्या फ़ाखतों की हू हू
सब रट रहे हैं तुझको क्या पंख क्या पखेरू
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।
जो मस्त हों उधर के, कर शोर नाचते हैं।
प्यारे का नाम लेकर,क्या जोर नाचते हैं।
बादल हवा से गिर-गिर, घनघोर नाचते हैं।
मेंढक उछल रहे हैं, और मोर नाचते हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।
कितनों तो कीचड़ों की, दलदल में फँस रहे हैं।
कपड़े तमाम गंदे, दलदल में बस रहे हैं।
इतने उठे हैं मर-मर, कितने उकस रहे हैं।
वह दुख में फँस रहे हैं, और लोग हँस रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।
यह रुत वह है जिसमें, खुर्दो कबीर खुश हैं।
अदना गरीब मुफ्लिस, शाहो वजीर खुश हैं।
माशूक शादो खुर्रम, आशिक असीर खुश हैं।
जितने हैं अब जहाँ में, सब ऐ 'नज़ीर' खुश हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।