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"पत्थर / संतोष कुमार चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर
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कितना जीवंत बन गया है
बातूनी हाथों में आ कर
बेजान सा यह पत्थर
सुनते आए हैं कि
संगत का असर होता है
अब तक सारी सर्दी-गर्मी सहता आया था
अब तक जैसे तैसे रहता आया था
अब तक सब खरी खोटी सुनता आया था
अब तक हरदम चुप चुप घुटता आया था
आज ही तो हथ-पत्थरी मशविरे की
चर्चा सुनाई पड़ी थी
आज ही तो पत्थर के जमीन से उठने
और चलने की पहली आहट सुनाई पडी थी
और फिर टूट ही गया
चमकते दमकते
अपनी जगह पर एक अरसे से शान से खड़े
शीशे का गुरूर
वह जो दिखता था अपनी अकड़न में
एक ही जगह पर खड़ा
अपनी ही जिद पर अड़ा सदियों से
हो गया पल में चकनाचूर