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"गुरिल्ले का आत्मकथन / अनुज लुगुन" के अवतरणों में अंतर

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18:43, 28 सितम्बर 2014 के समय का अवतरण

1.

मैं एक कविता की
खोज में हूँ
जो दूँढ़ निकाले
युद्ध के मैदान में
लैंड-माईन्स,बारूदी सुरंग
और छुपे हुए हमलावारों को

एक बच्चे की तरह
जो अपने मृत माँ-पिता
और स्वजनों के साथ ही
उस कविता के लिए रो रहा है
जो उसे वहाँ से बाहर निकाले।


2.

क्या युद्ध
हवाई जहाज़ों, युद्ध-पोतों, टैंकों
और अंततः दो राष्ट्राध्यक्षों के बीच
उनके हस्ताक्षर से लड़ा जाता है ?
मैं सोचता हूँ -
अगर 'हाँ' तो
हम कौन सी परिस्थितियों में जी रहे हैं...?

मैं अपनी बात मीडिया
और पत्रकार बंधुओं से कहता हूँ
वे हँसते हैं कि - 'यह मेरी मूर्खता है'

इससे हास्यास्पद
और क्या हो सकता है कि
मेरे घर की मुर्गियाँ खो गईं
सूअर दड़बों सहित गायब हैं
हल जोतते बैल या तो
खेत में समा गए हैं
या, खेत दब गए होंगे गोबर से
नदी अपना रास्ता बदलकर
गाँव में घुस गई होगी या, पूरा गाँव
गाँव सहित नदी में डूब गया है

मैं अपने स्वजनों को खोजते हुए
भटकता हूँ और अखबार वालों को
विज्ञापन मिलने लगते हैं पहले से कई गुना ज्यादा
मैं किसी राष्ट्राध्यक्ष को पत्र नहीं लिखूँगा
वह मेरा दोस्त नहीं है और न ही
वह मेरी प्रेम कहानी के बारे में कुछ जानता है
यह उसके लिए भी एक चुटकुला ही होगा
कि मुझे अपनी मुर्गियों से प्रेम है
जंगली लतरों, फलों और पहाड़ों से प्रेम है

मैं सूअरों, बैलों, भैसों और गिलहरियों के
अचानक खो जाने से सदमें में हूँ
वह इन सबको अलग-अलग कर देखेगा
वह गाय के जीवन को अलग बाँट देगा
और वह हिंसा का कारण बन जाएगी
वह 'गंगा' कहेगा और दूसरी नदियाँ सड़ जाएँगी
गिलहरी, जंगली भैंसे, हाथियों और हमें
बाँट कर बताएगा जीवन की परिभाषा
जबकि हम इनके साथ ही
बेहतर दुनिया बसाना चाहते हैं
मेरे ऐसे पत्र पर वह हँसेगा और कहेगा कि
हमारी दुनिया आदिमता की काली दुनिया है

मैं अपने स्वजनों, साथियों को
मिलने के लिए कहता हूँ जंगल में
राष्ट्राध्यक्षों के शिखर सम्मलेन वाले दिन
उनसे कहता हूँ कि अब
कोई जंगल, नदी, पहाड़ और जमीन नहीं
पीछे हटने के लिए
कि एक हिस्से में आग लगे
तो दूसरे हिस्से में दाना चुगने चले जाएँ
हमारे बच्चे, हमारी बहनें
हमारे बूढ़े और हमारी औरतें
उसी जलती आग में रोज तपते हैं
आधुनिकता की घोर आदिम पाशविक संधि-पत्रों के खिलाफ।


3.

रोज कोई हमें धकेलता है
युद्ध भूमि की तरफ
जो हमें धकेलता है
हम उसी से
लड़ने को तैयार हो जाते हैं

वह कहता है कि
हम युद्ध कर रहे हैं
हम जानते हैं कि
हम युद्ध में जाने से खुद को रोक रहे हैं।


4.

एक चिड़ी जंगल की
पगडंडियों से गुजरती है
और वहीं कहीं
होता है तिलिस्म सुरंग
चिड़ीमार उसके पदचिह्नों का पीछा करते हुए
उसके गाँव तक पहुँचते हैं
और जब तक
उसके गाँव को नहीं जलाया जाता
तिलिस्म सुरंग बारूदी सुरंग नहीं होता है।


5.

चिड़ीमार मेरी बूढ़ी माँ से पूछते हैं
मेरे जंगल का ठिकाना
मेरी माँ उनसे पूछती है कि
क्या उनके बंदूक से
कोई चिड़ा मर सकता है...?
वे कहते हैं - 'हाँ'
तो फिर मेरी माँ कहती है
उसे कुछ भी नहीं पता है।


6.

एक दिन एक चिड़ी
मुझसे आकर पूछी -
'तुम अपने कंधे पर बंदूक टाँगे
रात-दिन, भूखे-प्यासे
जंगली पगडंडियों में भटकते हो
क्या तुम्हें इस तरह खुशी मिलती है
जैसे मैं खुश रहती हूँ गीत गाते हुए'

तब मैंने उसे हल्की मुस्कान दी
और कहा -
'मैं तुम्हारा ही तो गीत गाता हूँ।'


7.

कुछ यूँ ही बैठा हूँ
शाम के धुंधलके में
घर की चौखट पर अकेले
सभी अपने अपने घरों को लौट रहे हैं
मुर्गी अपने चूजों के साथ
अभी तुरंत ही दड़बे के अंदर घुसी है
बैल, बकरी भी पागुर करते हुए
अपना-अपना स्थान ले चुके हैं
सूअर घों-घों कर सुस्त हो चुके हैं
मैं भी खेत से अभी-अभी लौटा हूँ

यहाँ सुदूर जंगल के बीच सब कुछ स्थिर होने को है
सिवाय रात के जो लगातार गतिमान है
कभी पुरखे डर कर दुबक जाते थे जिसे काला दैत्य जानकर
वह मालगाड़ी अभी-अभी ही इस आदिवासी गाँव से होकर गुजरी है
लोहे का कचरा ढोए रात को हार्न देते हुए और रातभर जारी रहेगा यह सिलसिला...

उन दिनों की तरह अब पहर का होना
और रात का होना दो अलग-अलग बातें नहीं रहीं
जब रात के दूसरे पहर चाँदनी में
हाथियों का झुंड और जंगली भैंसे चरती थी
चाँद उन दिनों रात का स्थगन प्रस्ताव लेकर नहीं आता था,

हम जानते हैं चाँदनी कुछ देर के लिए
अँधेरे को स्थगित कर सकती है
लेकिन रात को पहर भर करने के लिए सूरज ही अंतिम विकल्प है
और इस बात को जानते हुए उसके उगने की प्रतीक्षा करना
अपने ही पैरों में खुद बेड़ियाँ डालने जैसा है, बेड़ियों को तोड़ते हुए सोचता हूँ
क्या पागुर करती हुई बकरियों और बैलों को भी पता होता है हमारा दुख
क्या वे जानते हैं कि हम इस वक्त समान दुख और संकट के दौर से गुजर रहे हैं
कि इस गाँव से बेदखल हो जाने के बाद
न उनके लिए और न हमारे लिए रह जाएगा कोई चारागाह
और उन जंगली भैंसों का क्या होगा जो हमारे टोटेम हैं ...केरकेट्टा ...ढेचुवा ...और होरल ...?
एक रात रुक कर, या एक डिजिटल फ्लैश चमकाकर
नहीं लिया जा सकता है नाभिनाल सहजीवियों के साथ हमारा फोटो
पत्रकारों और पर्यटक लेखकों को यह बात ठीक से समझ लेनी चाहिए
कि हमारी भाषाओँ की अपनी अर्थ ध्वनियाँ हैं
जिसको वे आज तक अनुवाद के जरिये भी समझ नहीं सके हैं
कि किस चिड़ी को किस बकरी के दुख ने छापामार बना दिया है
कि समान दुख के लिए समान समाधान जरुरी है के तर्ज पर संयुक्त कारवाई की बात हो सकती है
यह बात उन पत्रकारों से पूछा जाना चाहिए जो बार-बार एक लाश पर अपने कैमरे को टिकाए हुए
व्यवस्था की पोल खोलने का दावा कर रहे हैं, और कह रहे हैं कि
कविता में पक्षधरता और प्रतिरोध बेमानी, कृत्रिम और अनावश्यक चीज है

हत्याओं से सबसे ज्यादा काँपता है मानव मन
और हत्याओं के खिलाफ उसके पास सबसे ज्यादा तर्क होते हैं
हम नहीं चाहते ऐसा कोई तर्क बावजूद इसके
कि उन्हीं तर्कों से की गई है हमारे स्वजनों और सहजीवियों की हत्या
कविता में भी आलोचक यही तर्क लाते है सजाने, चमकाने और परोसने का तर्क
कैसे मैं लाऊँ कविता में शिल्प, सौष्ठव और सौंदर्य...(?)
ओह...! कितना सुंदर है हमारा गाँव ...हमारा देस
हमारे साथी... हमारे जंगल... ईचा बाहा और ...सिंबुआ बुरू।

रात जारी है, फैल रहा है अँधेरा
चाँद बहुत देर तक स्थगित नहीं कर सकता रात को
हमारे बैल, बकरियों और मुर्गियों को पता है हमारा दुख समान है
हम दुखी हैं कि हमारी पत्नी और बच्चे फर्जी मुठभेड़ में मारे गए हैं
और दुख इससे भी ज्यादा यह है कि
यह बात पड़ोस के गाँव तक सही-सही पहुँचने नहीं दी जा रही
हमारी पहचान द्वीप में भटके-अटके नाविक की तरह हो रही है
बातें तो फैल रही हैं लेकिन कानून के उन अनुच्छेदों की तरह
जिसकी पुष्टि के लिए बार-बार न्यायाधीशों की जरूरत होती है
न्यायाधीशों के रास्ते थकाऊ, घुमावदार और अंतहीन...
कई पीढ़ियों से जारी है उनके यहाँ चक्कर काटने का हमारा सिलसिला...
और मैं बैठ जाता हूँ सदियों की लंबी थकान के बाद घर की चौखट पर ही

कुछ देर में साथी जुगनू आनेवाले हैं और मैं उनके साथ हो जाऊँगा
ओ मेरे पुरखों ! ये जुगनू तुम्हारी ही आत्मा के जीवित रूप हैं
मुझे देखो मैं जुगनुओं के साथ अपनी हथेली में भर रहा हूँ सहजीविता के गीत।


8.

मैं हर वक्त
घिरा होता हूँ मृत्यु से
तब भी गीत गाता हूँ
मुझे गीत गाता देख
उलझन में पड़ जाती है मृत्यु
वह सोचने लगती है कि
मुझे निशाना बनाए या मेरे गीत को,

वहाँ उस घाट पर
जब मृत्यु ने हमला किया था हम पर
तो वह हतप्रभ होकर देखने लगी थी कि
हम क्यों लड़ते हैं इतने साहस से
और क्यों नहीं उसे
अपनी इस करनी पर शर्मिंदा होना चाहिए
वह लौट गई थी यह सोचते हुए कि
अगर इस धरती पर बो दी जाय
पके धान की खुशबू वाली गेंद
तो सभी बच्चे गोल मारते हुए जश्न मनाएँगे
और वह युद्ध में मोर्चेबंदी करने से मुक्त हो जाएगी
बच्चे अपनी गठरी में बटोरेंगे गेंद
और यह धरती गेंद खेलते
बच्चों के हरे मैदान में तब्दील हो जाएगी
उस दिन मृत्यु ने हमसे यही गीत सुना था
और वह लौट गई थी हमारे सवालों के साथ,

हम जानते हैं हमारी कविता शब्दों की मरुभूमि से नहीं उगती
और न ही हम रेत के टीले पर घर बनाने के हिमायती हैं
यहाँ हमारे पुरखों के साथ खड़े 'ससन दिरी' जानते हैं
'जीवित होने' का एहसास
साल के वृक्षों को पता है जन्म का उत्सव
हरवैये बैल समझते हैं खेती के दिनों की बोली
हम यहाँ इस चट्टानी टीले के पास
या, वहाँ उस घाट के पास
बैठे हुए अपनी धरती के बारे सोचते हैं
हमें अपने बच्चों की नादानी पसंद हैं
और उनकी तोतली बोली हमें चाहती है
हम उन्हें अपनी आखों से आश्वासन देते हैं
उनके गीतों, जुगनुओं, तितलियों और सपनों के बारे में,
कितनी शांति होती है यहाँ इस टीले पर...
पहाड़ की तराई पर, नदी के तट पर,
गीत साझा करते हुए हम सहजीवी होते हैं
कि एक पेड़ से टिकी लतर अपनी देह पर
गिलहरी को उठा कर उसे खिलाती है कोई पका फल
और नदी उकेरती है यह चित्र अपने सीने में
और पहाड़..., क्या झुकते नहीं नदी की आँखों में यह सब झाँकने
ओ ! फूलों पर लोटती हुई तितली
ओ ! जुगनूओं की दादी
देखो, एक छोटी चिड़ी
अभी-अभी बच्चे को जन्म दी है
क्या हमें उसके लिए गीत नहीं गाना चाहिए...?
जुगनू, तितली, फूल, पेड़, नदी, जंगल
सभी सहजीवी जानते हैं हमारी उम्र इसी तरह बढ़ती है।

ससन दिरी : मुंडाओं की सांस्कृतिक विरासत वाला पत्थर। अपने पुरखों की स्मृति में उनके सम्मान में उनके कब्र पर गाड़ा जाने वाला यह पत्थर मुंडाओं के गाँव का मालिकाना चिह्न है। कहा जाता है कि अंग्रेजी समय में जब मुंडाओं से उनके गाँव का मालिकाना पट्टा माँगा गया था तो वे इसी पत्थर को ढोकर कलकत्ता की अदालत में पहुँच गए थे।