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"म्यहरारू / पढ़ीस" के अवतरणों में अंतर

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जो सकति<ref>शक्ति</ref> क्यार अउतारू <ref>अवतार</ref> होयि,
स्याव का साँचु सरूपु होयि;
जिहि का घर मा परगासु होयि,
हाँ असिलि म्यहरिया वहयि आयि।
अउ नीक म्यहरिया वहयि आयि।
जो संत्वाख<ref>संतोष</ref> की प्यटरिया<ref>पिटारी, गठरी</ref> हयि,
दुलहा के दुख - सुख मा साथी।
लरिका-बिटियन का कलपु बिरिछु <ref>कल्पवृक्ष</ref>
जिहि के बरक्कती <ref>बरकत देने वाला, लाभदायी</ref> हाथ होयि,
बसि ठीक म्यहरूआ वहयि आयि।
जो तीनि तिल्वाक <ref>लोक</ref> घूमि आवयि,
मुलु तहूँ म्यहरिययि बनी रहयि।
जिहि की मरजाद <ref>मर्यादा</ref> अयिस पक्की,
जो सपन्यउ मा न तनिकि बिगरयि
बसि, साँचि म्यहरूआ वहयि आयि।

जिहि की कोखी<ref>कुक्ष, कोख</ref> ते जगु जलमा,
जो सिरिहिटि<ref>सृष्टि</ref> की महतारी हयि।
वह पुरूख रूप की पुन्नि अयिसि,
जब जगर-मगर जग माँ जागयि
तब साँचु म्यहरिया वहयि आयि।
जो जलयि जिययि बिटिया, वहिनी,
महतारी, भउजी के ओहदा-
भरी - भरी पवित्रता पूरि करयि;
जब सुघरि सुलच्छनि नारि होयि।
हाँ नीकि म्यहरूआ वहयि आयि।
जो माता कहे ते महकि उठयि
महतारी वाले ब्वालन पर।
जो ‘‘बिटिया’’, ‘‘बहिनी’’ नाउॅ सुने ते
हँसि तन - मन ते ल्वहँकि जायि
बसि, नीकि म्यहरूआ वहयि आयि।
जो मनई का मनई मानयि,
मुलु खुदए म्यहरूवयि बनी रहयि।
जो वहिका बोरी, अपनउ बड़ी,
लोकु पताल चला जायी;
तब नीकि म्यहरूआ कहाँ आयि।
बिटिया महतारी, मनई छोंड़े,
अलग - अलग मीटिंग करि हयि।
क्यतना भगमच्छरू मचि जायी,
कसि छीछाल्यदरि होति रही।
ना, नीकि म्यहरूआ असि न आयि।

मनई म्यहरी ते सुखी होयि,
मुलु, होयि म्यहरूवउ मनई ते।
यह खइँचा तानी कहाँ नीकि,
जो छायि रही पिरथी ऊपर।
का, नीकि म्यहरिया यहयि आयि?
स्वाचउ - स्वाचउ, द्याखउ - द्याखउ,
बिटिया महतारिउ दुनिया की।
लरिका तुम ते अकुतायि उठे,
बुढ़ऊ बरम्हा जी खुद पूँछयि-
‘‘का, रूपु म्यहरिया अयिसि आयि?’’

शब्दार्थ
<references/>