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दुःख की अँधिरिया रात
आई है बार-बार
मेरे इस द्वार पर,
एक मात्र देखा था अस्त्र उसका
कष्ट का विकृत भान, त्रास की विकट भंगिमा
छलना भूमिका अन्धकार में।
भय का नकली चेहरा देख विश्वास किया जितनी बार
उतनी ही बार हुआ पराजय व्यर्थ का।
यह हार जीत का खेल, जीवन की झूठी माया यह
शिशु काल से विजड़ित है पद-पद में विभीषिका,
दुःखमय परिहास पूर्ण।
भय का विचित्र है चलचित्र-
मृत्यु का निपुण शिल्प है विकीर्ण अन्धकार में।
कलकत्ता
सायाह्न: 29 जुलाई, 1941