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विशु दाद हैं
दीर्घ वपु, दृढ़बाहु,
दुःसह कर्तव्य में उनके नहीं कोई बाधा,
बुद्धि से उज्जवल है चित्त उनका,
तत्परता सर्व देह में-
करती रहती संचरण।
तन्द्रा की ओट में-
रोग-क्लिष्ट क्लान्त रात्रिकाल में
मूर्तिमान शक्ति का
जाग्रत रूप जो है प्राण में
बलिष्ठ आश्वास लाता वह वहनकर,
निर्निमेष नक्षत्र में
जाग्रत शक्ति ज्यों निःशब्द विराजती
अमोघ आश्वास से
सुप्त रात्रि में विश्व के आकाश में।
जब पूछता है मुझसे कोई,
‘दुःख है क्या तुम्हारे कहीं,
हो रहा है कष्ट कोई ?’
लगता है ऐसा मुझे,
इसके नहीं मानी कोई।
दुःख तो है मिथ्या भ्रम,
अपने पौरुष से अपने ही आप मैं
अवश्य ही करूंगा उसे अतिक्रम।
सेवा में निहित शक्ति दुर्बल देह का करती है दान
बल का सम्मान।