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राग श्री, तीन ताल 23.7.1974
मेरी एकहुँ नाहिं सुनी।
टेरि-टेरि मैं हारी प्यारे! परी न स्रवन धुनी॥
मेरे तो तुम ही मनमोहन! गुनी भले अगुनी।
मेरी बात बने तब जब तुमहूँ मानहु अपुनी॥1॥
तुम बिनु विकल प्रान ये प्रीतम! इनके तुमहि धनी।
पे तुम करहु न कान प्रानधन! इनकी करुन-धुनी॥2॥
कहा कहों, कछु समुझि न आवै, का तुम हिये ठनी।
अपुनो ही जो सुनै न अपुनी तो का बात बनी॥3॥
अब तो सहन न होत विरह यह, हिय सुलगत अगिनी।
दरस-सुधा दै सींचहु प्यारे! रखहु बात अपुनी॥4॥