"श्री गणपति की याद में - 2 / पुष्प नगर / आदर्श" के अवतरणों में अंतर
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चाहता नहीं है वह लक्ष्मी को
और लक्ष्मी क्या करे?
उसके अलौकिक गुणों पर
अगर रीझे नहीं
कैसे अस्तित्व रहे चंचला का
व्याकुल सी हुई वह
हो गयी अचंचल सी
दुविधा में पड़ कर के-
बैठाऊँ चूल कैसे
कामों में
घर और बाहर के
मिलें हठधर्मी जब
साधारण व्यवहार भी
जो नहीं जानते।
अपने भी सुभीते का
ध्यान रखते जो नहीं
पिता और माता की
दी हुई
कीमती पोशाकों को
फेंक कर
खुली देह
रहते हैं-
घोर शीत सहते हैं
कैलाश पर्वत के बर्फ में।
अधिक आहार कर
लम्बोदर हो गया जो
हठी मन की ही तरह
जिसका शरीर भी
हिल नहीं पाता
और रह कर अचल भी
जो इतना चलायमान
माना गया,
घोषित हुआ सर्वश्रेष्ठ
देवों की दौड़ में
और हुआ वह पूजित
सुरों और मानवों-
सभी के लिए
हर शुभ काम में।
लोक और परलोक
दोनों का समन्वय कर
दाँत दोनों ढंग के
दिखलायी पड़े जिसमें,
हहर कर जिसने
प्रसन्नता के साथ लिया
जीवन को,
देव वह महान
मेरी श्रद्धा का पात्र है
शत शत प्रणम मेरा
अंगीकार कर ले।