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कवि सोचता था
मानवों ने बड़ी उन्नति की
चारों ओर जीवन में
नया ही संसार रचा,
रेल, तार व्योमयान,
क्रूजर जहाज द्वारा
संगठन कर डाला
मानव समाज का,
लाखों मील दूर बैठा
व्यक्ति विश्व भर की
सेवा में समर्थ हुआ।
कवि की प्रसन्नता थी,
भूतल ही स्वर्ग बना जाता है।
देवताओं को भी इस जीवन में
आने की उमंग होगी
इसकी परीक्षा करने की
उत्कंठा से
प्रेरित हो एक दिन
चला वह यात्रा में।
ज्यों-ज्यों बढ़ा आगे
स्वप्न होने लगे चूर-चूर।
भेंट हुई नेता से
बातें कर जान लिया
उन्हें नहीं चिन्ता कुछ
देश की, समाज की।
काम उनको है
बस केवल एक बात से
सीधा हो जाय
किसी भांति उल्लू उनका।
अपने ही भोजन की
अपने ही वस्त्र की
अपने निवास और
अपने भविष्य की-
चिन्ता दिन-रात उन्हें
कार्य मगन रखती है।
शिक्षकवर शिक्षा
आज देते हैं,
जिससे विकास दूर
हा्रस होता उलटा।
मानव चरित्रहीन
होकर के खो रहा
अपनी शक्ति सारी।
धर्म गुरुओं ने भी
किया ईश्वर का सौदा।
आप तो विलास और
भोग के गुलाम बने,
किन्तु चाहते हैं।
और लोग छोड़ दुनिया
उन्हीं के पुजारी बने
पागल बने घूमें
जिनमें शारीरिक बल
वे भी उस बल को
अत्याचार, चोरी, डाका,
बलात्कार ही के लिए
काम में हैं लाते।
धनवान धन द्वारा
सेवा नहीं करके समाज की,
चाहते हैं तोंद उनकी ही रहे फूली
निर्धनों का रक्त चूस
पलते हैंऐसे वे
जैसे पले खटमल।
श्रमिकों की विचित्र दशा
कड़ा श्रम करके
पाये हुए पैसे को
जुआ में, शराब में,
ताड़ी, सिगरेट, बीड़ी पीने में
पानी के समान
बहा देते हैं।
कवि को यह देखकर
खेद हुआ, किन्तु
उसे आशा थी
उनसे जो कल्पना के लोक से
खाकर के भाव नये
जनता के, मानव के
भावों को उठाते हैं
हृदय विकसाते हैं।
इससे वह कवियों के
पास गया, उनसे भी बातें की
लेकिन उनकी तो दशा
और भी शोचनीय थी।
जहाँ उन्हें समाज दशा
देख कर रोना था,
करुणा का दान कर
आंसुओं की धारा से
मोह ग्रस्त लोगों के
मनों का मैल धोना था,
वहां वे विलासिता के
पंक में ही गहरे धँस के थे गाते गीत
विषयी प्रणय के।
प्रेयसी के कटाक्ष
घायल कर उनको
जीवन की शक्ति से
बना रहे थे वंचित।
बहुत निराश होकर
कवि आया अपने निवास पर
मानव किस ओर जाता
उसका उद्धार कैसे
हो सकेगा, इसी गूढ़ चिंता में
डूब गया,
अपने कर्तव्य की ओर भी
गया ध्यान उसका
किन्तु यह विचार
आया शीघ्र ही-
मुझ में कहाँ शक्ति है।
जो हो, यह कह कर ही
अपने कार्य क्षेत्र से
भाग सकता भी नहीं
नहीं है कभी संभव
तो फिर है विश्व के
महान कवि, साहित्यिक,
आओ मेरी प्रतिभा में
नई शक्ति भरने।
कहाँ बाल्मीकि हैं,
कहाँ हैं कालिदास,
वेदव्यास, भवभूति, तुलसी और मीरा,
फिरदोसी, हाफिज,
शेक्सपियर, गेटे और मिल्टन,
रवीन्द्र महाकवि यश जिनका
है भूतल में फैला।
अपनी महान प्रतिभा का
एक कण मुझको दें,
भाव समुद्र
लहराये मेरे मानस में
लेकर इस चिनता को
कवि था यों खोया हुआ
भूल गया अपने को
और उसने जाना नहीं
कब निद्रा देवी ने
आकर धीमे पाँव
बाहुओं में कस लिया।
निद्रा के द्वारा
कवि स्वप्नलोक में गया,
महारानी प्रकृति के
दर्शन हुए वहाँ-
परम गम्भीर और
वत्सलतामयी मुद्रा,
अधरों पर
मधुर हँसी
सहज ही पवित्र प्रेम प्यारा
उमंगाती थी।
बोली वे-
‘हे कवि!’
तुम्हारा दुःख
मैंने सब समझा।
धैर्य धरो,
शीघ्र ही
ऊषा से तुम्हारा
मैं परिचय कराऊँगी
तुमको प्रकाश देगी,
जिससे तुम्हारे सब
शोक मिट जायेंगे।”
इतनी ही बातें कह
प्रकृति चली गयी
स्वप्न भंग हो गया।
जागरण पाकर
कवि ऊषा की प्रतीक्षा में
दत्त चित्त हो गया।
आयी ऊषा
यौवन की
मंजुल लावणय की
मूर्ति सी
निर्मल सरोवरों के
शीशे में
शोभा देख कर अपनी
फूली न समाती थी।
कवि ने की वंदना
ऊषा ने भी किया अभिवादन
मधुरता भरे कोकिल के स्वर में
और कहा-
”वाणी पुत्र।“
महारानी प्रकृति से
मुझको
तुम्हारा सब हाल ज्ञात हो चुका है,
जानती हूँ-
लोक की वेदना से
तुम हुए विचलित।
मेरी प्रिय भगिनी है-सूर्यमुखी,
चलो तुम
उससे मिला दूँ, तुम्हें,
उपचार कर देगी
सारा ही तुम्हारा वह,
अनुभव पाओगे विचित्र
महा कविवर।
उससे तुम्हारी
कमजोरी मिट जायेगी।
”चलो देवि“
कह कर के
कवि हुआ, ऊषा देवि अनुगामी।
ऊषा ने उपस्थित कर कवि को
सूर्यमुखी सामने
कवि के उद्देश्य सब
उसने समझा दिए।
समय नहीं था
उसे शीघ्र कहीं जाना था
कवि को असीस देकर
वहाँ से चली गयी।
सूर्यमुखी,
सूर्य की प्रिया थी वह
ऊषा की बहन छोटी ।
पाया था प्रफुल्ल,
उन्माद भरा यौवन उस बाला ने,
कवि ने न देखा था
ऐसा दिव्य लावणय
कल्पना की
ऊँची उड़ान में भी,
रूप पर मोहित हो
एकटक
वह उसे देखता ही
रह गया।
उसकी परवशता को
उसकी विमुग्धता
सूर्यमुखी जान गयी।
बोली-खुले शब्दों में-
”हे कवि!“
तुम्हारी यह अनुरक्ति
ठीक नहीं।
कार्य क्षेत्र विस्तृत तुम्हारा है,
तुमको हैं बड़े कार्य करने।
तुमको उन्मादित
महानद की भांति ही
होना है प्रवाहित,
सोचो मत
बंधे जल छोटे तालाब के बीच
डूब जाने की।
तुम्हीं एक आशा हो
मानव समाज के।
भावनाएँ ऊँची करो
ऊँची उठें लहरें
मानस के समुद्र में।
महारानी प्रकृति का
जीजी ऊषा का
आदेश मिला मुझको
कि मैं तुम्हें बताऊँ
पुष्पनगर व्यवस्था सब।
चित्त करो स्वस्थ और-
बातें सुनो मेरी।
विश्व के समस्त नगरों में
पुष्पनगर महान है।
पैसे पर आधारित
यहां का प्रबन्ध नहीं
यहाँ पर प्रेम ही है मूल मंत्र।
इसके विपरीत ही
मानव समाज में
पैसे का बोलबाला है।
पैसा नहीं जिसके पास
उसको कोई भी नहीं पूँछता।
विश्व के सुकवियों ने
पुष्पनगर ही से आदर्श का
किया है प्रचार सदा
तुम भी वही करो।
यहाँ के रहस्य सब खोल कर
सामने तुम्हारे
रख दूँगी मैं-
सोचते हैं मूर्ख लोग
यहाँ नहीं शासन
किन्तु यहाँ शासन व्यवस्था बड़ी चौकस है।
शासन अध्यक्ष हैं
गुलाब पुष्पराज
महामंत्री है कदम्ब कुलश्रेष्ठ
खाद्य, जल मंत्री अरविंद हैं।
शिक्षा और स्वास्थ्य
मंत्री हैं अशोक पुष्प
रक्षामंत्री पुष्प भटकटैया विख्यात हैं।
नारी उत्थान के लिए भी
एक मंत्री यहाँ, श्रीमती चमेली
हैं नियुक्त।
सूर्यमुखी बातें सुन
घूम कर भव्य पुष्पनगर विभागों में
कवि ने यह प्रश्न किया-
”किन्तु देवि, एक बात तुमने बतायी नहीं,
क्या तुम्हारे यहाँ
काव्य, चित्र, संगीत आदि
सुन्दर कलाओं की
व्यवस्था नहीं है कुछ?
यह तो अभाव बड़ा भारी है
तेज भरे स्वर में तब हल्की मुसकान साथ
सूर्यमुखी ने कहा-
कैसे यह सोच लिया,
काव्य का, कलाओं का
आदर नहीं हैं यहाँ?
यहाँ है अनेक दक्ष सुकवि, महाकवि भी
और एक राष्ट्र कवि-
जिनके नेतृत्व में
सारा ही शासन प्रबंध यहाँ चलता।
इसी से यहाँ कभी
संघर्ष नहीं होते,
सभी के लिए है
यहाँ जीवन भरा सुख से।
”देवि, पुष्पनगर के
शासन संचालकों से
मिलने की अभिलाषा
मुझे हो रही है
क्या उत्कंठा मेरी यह
तृप्त कर दोगी तुम?
कवि का यह प्रश्न सुन
सूर्यमुखी ने कहा-
हे कवि, रहे होतुम
दिन भर भ्रमण में
हो रही है संध्या
अब चल के विश्राम करो
सुंदर अतिथि निकेतन में
पुष्पों की शैया पर।
करके प्रणाम
बड़ी बहन ऊषा देवी को
तुम्हें ले चलूँगी कल
सबसे मिलाने को
पहली तुम्हारी भेंट होगी अध्यक्ष
पुष्पराज श्री गुलाब से।“
यह कह सूर्यमुखी आगे चली चपला सी
अपने भवन को
कविवर को साथ लिये।
वहाँ जब पहुँचे,
सुन्दर खजूर और श्रेष्ठ मधु द्वारा
सत्कार हुआ उनका।
तृप्ति पाकर
कवि जमुहाई लगे लेने,
बोली तब सूर्यमुखी
हे कवि! विश्राम करो शैया पर
नमस्कार, जाती हूँ अब मैं
अपने शयनागार में।