भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"औरतें जानती हैं / नीलोत्पल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीलोत्पल |अनुवादक= |संग्रह=पृथ्वी...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

21:05, 22 दिसम्बर 2014 के समय का अवतरण

क्या तुम मुझे जानते हो दोस्त
मैं इन गुमनाम शब्दों की तरह
बंद हूं किताबों में
मैं नहीं जानता
ये कब खोली और पढ़ी जाएंगी

मैं सिर्फ़ सांस लेता हूं
बंद समुद्र की तरह

तुम क्यों आते हो
इस को लेकर हमेशा बेचैन रहता हूं

नहीं जानता
एक किताब, कवि और हमारा संबंध
किस तरह है ?

होता यह है जब घर से निकलता हूं
सड़कों पर चलती छायाएं
घेरती हैं मुझे

मैं सब से बातें नहीं कर पाता
मैं बचाता हूं ख़ुद को
और लिखता हूं वे शब्द
जिन्हें लिखना-
हमेशा से दखल देने
और ज़ोख़िम से भरा रहा है
जबकि यह बहिष्कार है
या मेरे कमज़ोर सरोकार की अल्प सीमाएं

इस तरह
मैं बचता हूं कटघरे से
जहां एक नेता, अफसर, कर्मचारी को
जवाब देना होता है
अपने किए काम के बारे में
मैं चुप गुजर जाता हूं अंधेरों से होकर

मैं लिखता हूं
वे तमाम बातें
जिन्हें खुरचते-टोहते उखड़ते जाते हैं नाख़ून

मैं आता हूं अपना सभ्य चेहरा लिए
पीछे जो रह जाता है नकली और सतही
औरतें जानती हैं

दूर तक कोई स्थिति नहीं है
कि कोई आकर कवि से पूछे
उसके रोपे बीज
कितने सड़े और गले हैं
वह कितनी जगह से लौटा है
ख़ाली और अपराध से भरा
क्या है उन शब्दों की प्रमाणिकता
जो खाली देगची में
उबला करते हैं दिन-रात
क्या वह तैयार है जवाब के लिए ?

जब हमारे बीच कुछ नहीं होता तो
मैं यही सोचता हूं कि
पुल पार करते हुए
जल्दबाजी में छुट गई हैं वे पंक्तियां
जिनमें चंद लोग निकल गए हैं
बिना किसी आवाज़ के