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"एक आदमी की प्रकृति में / नीलोत्पल" के अवतरणों में अंतर

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14:07, 23 दिसम्बर 2014 का अवतरण

मैं हमेशा एक जैसा नहीं रह सकता
एक जैसी सुबहं, एक जैसी रातें
एक जैसा आदमी, एक जैसी फ़ुर्सत

संकेत भर नहीं होता बदलना
यह एक जिस्म से कई जिस्मों की यात्रा
कई पहाड़ों, झीलों का परवान

मैं अपने भीतर कई स्त्रियां देखता हूं
रचता हूं एक घर
चाहता हूं एक इंसान जो यक़ीन करे
मेरे लफ़्ज और सुंदरता पर

मैं हमेशा बूढा रहना नहीं चाहता
मुझमें कूद आते हैं बच्चे और ढेरों खरगोश
मैं निकल जाता हूं आज़ादी और सपनों के बाहर

अगर यक़ीन करें तो मैं उन दिलों में ही रहना चाहूंगा
जो मुझे पसंद नहीं करते
बल्कि उनके साथ ही अपनी इच्छाएं जाहिर करुंगा

मिट्टी का लोच, मिट्टी की गात
वह रुप जो बाहर नहीं भीतर होता है
उस तरह से तो मैं मिट्टी ही हूं
ढलने और बिखरे जाने के लिए

वह तट जहां दुआएं कबूल नहीं होतीं
मैं लिखता हूं कविताएं
वह रास्ता जो अज्ञात की ओर जाता है
मैं बढाता हूं क़दम चपल बिल्ली की तरह

मैं लौटने की तरफ़ जाता हूं
वहां जहां दीवारं रख दी गई हैं
सबसे मुश्किल है ख़ुद में उतरना
हर बार लड़खड़ाता हूं
धक्का देता हूं, आकृति बदलता हूं
लेकिन बाहर ही रोक लिया जाता हूं

मैं चाहता हूं
मुझे दंड मिले उन सारी बातों के लिए
जिन्हें मैंने छिपाया नैतिक और सभ्य होने में
क्या मैं नहीं जानता इस तरह मैंने स्वांग किया
और एक बेहद ख़ूबसूरत जिंदगी को चादर ओढाई
बेहद लंपटता से बुनी हुई

होता यही है हम रह नहीं पाते असहज
जो जैसा हो नहीं सका
मैंने उसे छोड़ दिया

मैंने कोई घर किराए पर नहीं लिया
किराया फिर भी बनता था
मैं चुकाता रहा ख़ुद को
जगह-जगह
आख़िर ये शब्द ही है
जिन्हें मैं नहीं दे सका, रख लिए अपने पास
और गुम हो गया इनमें

एक आदमी की प्रकृति में
इससे ज़्यादा क्या हो सकता है कि वह
चुभे नहीं किसी को
और निकलता रहे हर बार अनजान होकर