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भई कंत दरस बिनु बावरी।
मो तन व्यापे पीर प्रीतम की, मूरख जानै आवरी।
पसरि गयो तरू प्रेम साखा सखि, बिसरि गयो चित चावरी।
भोजन भवन सिंगार न भावै, कुल करतूति अभावरी।
खिन खिन उठि उठि पंथ निहारी, बार बार पछितावरी।
नैनन अंजन नींद न लागै, लागै दिवस विभावरी
देह दसा कछू कहत न आवै, जस जल ओछे नावरी।
धरनी धनी अजहुँ पिय पाओं, तो सहजै अनंद बधावरी।