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"अपने सफर पर / अरविन्द कुमार खेड़े" के अवतरणों में अंतर
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कुछ नहीं है मेरे झोले में
सिवाय कुछ दुआओं के
कुछ बद्दुआओं के
दिन भर जो कमा कर लाता हूँ
रात को ही करनी पड़ती हैं अलग-अलग
आहिस्ता से सहेज कर
रखता हूँ दुआओं को अलग
बद्दुआओं की गठरी बना कर
सिरहाने रख सो जाता हूँ
पौ फटते ही दुआओं को
डाल देता हूँ आकाश में
चोंच भर दानों की तलाश में
पेट लिए
उड़ान भरने को निकले पंछी
चुग लेते हैं हाथों-हाथ
आज की रात
और अगली सुबह के लिए
झोला लेकर मैं चल पड़ता हूँ
अपने गंतव्य पर
अपने सफर पर.