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राग गारा, ताल दादरा 16.9.1974
‘स्याम स्याम स्याम’ सुमिर, यही एक सार रे!
स्याम को गुलाम होय ढोवत क्यों भार रे!
सुपनो सब जगज्जाल।
अपनो नहिं कोउ माल।
तजिहैं सब अन्त तोहि, स्याम जनि विसार रे॥1॥
भूल्यौ निज नाथ हाय!
भोग भोगि<ref>भोग रूपी सर्प, विषय-व्याल</ref> कण्ठ लाय।
विषय-विष विमूढ ताहि जानत तू हार रे!॥2॥
जानत तू जलद जाय-
सो तो रही धूरि छाय।
ताको तजि मोह हिये प्रगटा रस-धार रे!॥3॥
रसमय रस के अधार-
प्रीतम तव अति उदार।
उनसांे रस पाय सरस भासत संसार रे!॥4॥
भज-भज रससिन्धु स्याम।
तज तज सब विषय-काम।
हुइहै निहाल, हिये बहिहै रसधार रे॥5॥
स्याम-स्याम-स्याम सुमिर।
और सकल काज विसरि।
यहि है सयानो काज और सब असार रे!॥6॥
शब्दार्थ
<references/>