"मां / दामिनी" के अवतरणों में अंतर
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17:29, 1 मार्च 2015 के समय का अवतरण
मानती हूं कि किसी ने मेरी कोख में
खलबली नहीं मचाई,
ये भी माना कि दूध की नदियां
मेरी छातियों ने नहीं बहाई,
सच है, किसी के रोने से
मेरी नींद नहीं अचकचाई,
मैं सोई हूं सदा सूखे बिछौने पे
किसी ने मेरी चादर नहीं भिगाई,
ये सब भी है कुबुल मुझे कि
मैंने किसी के लिए लोरी नहीं गाई,
किसी के शुरुआती कदमों को
ऊंगली भी नहीं थमाई,
मगर, पूछना चाहती हूं मैं ये सवाल,
क्या यही सब बातें हैं मां होने का प्रमाण?
भला कब नहीं थी मुझमें ममता?
कब नहीं थी मैं मां?
हां, मैं तब भी मां थी,
जब सुलाती-जगाती, दुलारती-लताड़ती
और खिलाती-पिलाती थी अपनी गुड़िया को,
कम भावभीनी नहीं थी मेरे लिए
उसकी शादी और विदाई।
मैं तब भी मां थी,
जब अम्मा की गोद में था मुन्ना,
और अपने से दो बरस छोटी मुन्नी के लिए,
मैंने ही थी मां जैसी गोद जुटाई,
मैं तब भी मां थी,
जब रूठे भाई को,
मैंने लाड़-मुनहार से रोटी खिलाई ,
मैं अपनी मां के लिए भी,
मां बनी हूं तब,
जब बिखरे घर की,
मैंने जिम्मेदारी उठाई।
समेटकर अपनी विधवा मां के
बिखरे वजूद को अपनी बांहों में
मां की ही तरह,
मैंने उसके लिए सुरक्षा की छत जुटाई।
बताओ, कहां नहीं दी
तुमको मुझमें मां दिखाई?
नहीं कहा मैंने कभी कि
मेरे भींचे होठों में सैकड़ों लोरियां
हजारों परी-कथाएं खामोश हैं,
मैंने ये भी नहीं बताया कभी कि
जो दूध मैने छातियों में सूख जाने दिया,
वो आंखों में अब भी छलछलाता है,
मेरी कोख में जो बंजर सूख गया,
वो सिर्फ उम्र का एक गुजरता पल था,
ममता तो बिखर गई है मेरे सारे वजूद में।
आ जाए कोई भी,
किलकारियां मारता या भरता रुलाई,
मुझमें पा जाएगा
मां जैसी ही परछाईं,
फिर भी आप कहते हैं
तो मान लेती हूं,
कि बस मां जैसी हूं,
मैं मां नहीं हूं,
चलो ये क्या कम है,
अगर मेरी कोख किसी को
दुनिया में नहीं लाई
तो किसी जिंदगी की पहली सांस को ही,
सड़क किनारे की झाड़ियों में,
मौत की नींद भी नहीं सुलाई।
नहीं भरा किसी अनाथालय का
एक और पालना मैंने,
ना ही जिंदगी की वो लावारिस सौगात
मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ाई।
कोई माने, ना माने,
क्या फर्क पड़ता है मुझे।
मैं जानती हूं कि ममता की खुशबू
किस कदर है
मेरे कुंवारे वजूद में समाई।