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इस गंदे, बदबूदार, संकरे, अंधेरे कमरे में,
बस एक तख्त-भर का है अरेंजमेंट,
घंटे के हिसाब से चलता है यहां का रेट,
बीसियों बार खुलता है यहां दिन-भर में,
मेरे औरत होने की दुकान का ‘गेट’,
ड्राईवर, मजदूर, रिक्शावाला,
कोई भी आ सकता है,
जो भी मेरे गोश्त की,
कीमत चुका सकता है,
पुलिस वाला तो दाम भी नहीं चुकाएगा,
हमारे ‘संरक्षण’ के नाम पर ही
दो ग्राहकों की ‘सेवा’
अकेला मार जाएगा,
करना तो है ही,
चाहे भला हो या बुरा, ये काम,
क्योंकि मुझे भी बनाना है
अपने बच्चे को अच्छा इंसान।