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"आब सहब नहि / शम्भुनाथ मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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की भेल समाजक अछि स्वरूप
बस विकृतिएकेर समाचारसँ
भरल रहै अछि पेपर सब
शीर्षकसँ लय भीतर पन्ना खाली अपहरणे आ हत्या
चलती गाड़ीमे सकल कर्म कय फेकि
करय आनन्द लोक।
कलुषित करैछ मानव-जीवन
अछि मनुज, मनुजता छोड़ि रहल
राक्षसी प्रवृत्तिक बाढ़ि सकल
जे नीक लोक से बनल विकल
दुष्कर्मी सब करइछ कल-कल
की हैत कतहु एकरो विराम?
लोकक जिनगी भेलै हराम
जे देखि कहय मन राम! राम!
कलियुगक थिकै ई दुष्प्रभाव
ग्लानिक रसकेँ नहि पीब आब
हो दर्प चूर्ण पपियाह सभक
जे अबल अकिंचन जनक बीच
चाहय पसरय आरो अन्हार
जे शुभ्र शाभ्र जे मटोमाट
ओ कहाँ करै अछि ई बिचार
अतृप्त रहल जे जीवन भरि
तकरा आत्माकेँ करी तृप्त
ओ कहाँ करै अछि ई साहस जे
हाथ थाम्हि सिन्दूर करत
लहठी पहिराओत लाल-लाल
छल जे अन्हार जीवनक दीप
चट ढारि स्नेह उज्ज्वल करतै
टेमी उकसा करतै प्रदीप्त
कय भ्रष्ट अपन अन्तर्मनकेँ
अनकर जीवनकेँ कय हलाल
बूझय अपनाकेँ पैघ लाल
नहि अन्तरमे कनियोँ मलाल
उच्चासन चढ़ि बजबैछ गाल
तेँ समय आब अछि आबि गेल
जे अछि अत्याचारी मुखड़ा
तकरा मुखमे कारी लगाय
गदहापर बैसा कय घुमाय
हर्दा बजबाबी सरेयाम,
जे होथि समाजक मुखर लोक
ओ विधवा किंवा विधुर रहय
वा अन्य विपत्तिक हो मारल
तकरा सबलय थिक यैह उचित
जे सब समाजकेर लोक जगाबी
एक चेतना भीतरमे
जे पुरुष आर महिला दूनू
आगाँ आबथि निज तनमनसँ
आदर्श उपस्थित करथि
जीवनक थिक यथार्थ सम्पूर्ण सत्य
जीवन रथकेर दूनू पहिया
गतिशील बनय आ अपन लक्ष्य पर पहुँचि सकय
जे थिकै भूमिका जीवन केर
सौन्दर्य तथा पूर्णाहुतिहित