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आइ अणु परमाणु जाग्रत, जड़ जगत जीवंत जंगम
विगत निश नैराश्य, आशा-उषा विहुँसलि क्षितिज सगम।।1।।
कर्म रत युग-धर्म चिन्मय, रचि रुचिर रचनाक मुद्रा
आइ कवि! जगबय दियऽ जग-दृग जडित जडताक निद्रा।।2।।
मेटयतै कालुष्य परवशता, विवशता तिमिर - लेखा
गढ़ल जयतै नवोदित इतिहास सूर्यक रश्मि-रेखा।।3।।
आब नहि क्यौ आक्रमण कय, सिन्धु सिकता पार करते
आब नहि क्यौ विश्व - जेता कोनहु कोनहु चापि धरते।।4।।
आब जुटि अयते न शक दल, हून नहि पुनि हूलि सकते
आब नहि लुंटाक दल गिरि सिन्धु नद पथ बूलि सकते।।5।।
नाथ बनत अनाथ नहि, ने क्षमा - मूर्तिक नयन भंजन
आब सिकता - दस्यु सिन्धुसुताक करत न हरन - गंजन।।6।।
नहि बचयबा लय सतीत्व, चिताग्नि सजते क्षत्रियाणी
स्वजन मर्दन हित न, दोसरसँ लुटौतै राजधानी।।7।।
आइ चंगेजी न रंगेजी, न अंगेजीक चंक्रम
सजग अंगेजल जखन विक्रम पराक्रम स्वमत संगम।।8।।
विक्रमेसँ रत्न नव आदित्यसँ लालित्य नव रस
आइ लोकालोक संवत्, बलित जन साहित्य हितवश।।9।।
स्वर्ण निष्क कनिष्क चलबथु, चलथु पार समुद्र गुप्तो
स्कन्द उठबथु स्कन्ध पर, शासनक गौरव भार लुप्तो।।10।।
श्रमण आश्रम भिक्षुणी नहि, राज्य-श्रीकेँ बनय देबै
हर्ष राष्ट्र प्रकर्ष हित, पुनि बाण वाणीकेँ पुजयबै।।11।।
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शीत भीतहु, ग्रीष्म भीष्महु सुखद मलयानिल वसन्ते
मध्य कतबहु वध्य रहते, चिर अमरता आदि अन्ते।।12।।