"बिकाऊ समय / मनोज पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज पाण्डेय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
11:05, 26 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण
खरीद लो
या
बिक जाओ
यही दो अनिवार्य शर्त है...
इस बिकाऊ हो चुके समय की
घर की रद्दी से लगायत
घर की कोख तक की
कीमत लग जा रही है!
आप चाहें तो
अपने:
गुर्दे, लीवर, खून, रेटिना, चमड़ी
स्स्ब्को बिकने के लिए सजा सकते है
यहाँ तक की दिमाग भी,कई बार
अच्छी कीमत दे जाता है
जिस समय में
हर चीज कोई न कोई
कीमत दे जा रही है
उस महान बिकाऊ समय में
आपकी हैसियत
और अहमियत!
आपके बिकाऊ मूल्य पर
तय हो रही है
क्या खराबी है?
(यह पक्की दुनियादारी है)
आपके हाथ भी तो
अपनी कीमत लग जा रही है
जो जीते जी ही नही
मरते दम तक नही
बिके ऽऽऽऽऽ
उनको भी यह महान बिकाऊ समय
चप्पल-बंडी पर छाप बेच रहा है
चे और गान्ही की हालत
छुपी नही है किसी से
इतना ही नही
यह महान बिकाऊ समय
इस कोशिश में तो लगा ही है कि
बिक जाएगी ही यह पृथ्वी भी
किसी न किसी दिन
किसी ब्लैक-होल के हाथों
गनीमत है
सिरजने वाले अभी भी
सिरज रहे है
प्रेम
मुस्कान
शब्द
और धरती