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"हिंदू-मुस्लिम एकता / अज्ञात रचनाकार" के अवतरणों में अंतर

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रचनाकाल: सन 1932
क्या हुआ गर मर गए अपने वतन के वास्ते,
बुलबुलें कुर्बान होती हैं चमन के वास्ते।

तरस आता है तुम्हारे हाल पे, ऐ हिंदियो,
ग़ैर के मोहताज हो अपने कफ़न के वास्ते।

देखते हैं आज जिसको शाद है, आज़ाद है,
क्या तुम्हीं पैदा हुए रंजो-मिहन के वास्ते?

दर्द से अब बिलबिलाने का ज़माना हो चुका,
फ़िक्र करनी चाहिए मर्जे़ कुहन के वास्ते।

हिंदुओं को चाहिए अब क़स्द काबे का करें,
और फिर मुस्लिम बढ़ें गंगो-जमन के वास्ते!