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अल्लाह नाम वालो, सुन लो कथा हमारी,
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दुखिया किसान हम हैं, भारत के रहने वाले,
मस्जिद के तुम हो बंदे, मंदिर के हम पुजारी।
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बेदम हुए, न दम है, बे-मौत मरने वाले।
  
हैं नाम उसके कितने, पर एक ही ख़ुदा है,
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इंसान बन के आए, गो पाक इसी ज़मीं पर,
हज़रत हुसैन वो ही, वंशी थी जिसकी प्यारी।
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हमसे मगर हैं अच्छे, ये घास चरने वाले।
  
वह करबला में आया, गोकुल में भी वही था,
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चक्की मुसीबतों की, दिन-रात चल रही है,
गीता बनाई उसने, जिसकी अज़ां है जारी।
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करके पिसान छोड़े हमको, हैं पिसने वाले।
  
कुरआन है जो उसका, तो वेद भी उसी का,
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दुनिया है एक तन तो, हम आत्मा हैं उसकी,
‘प्रीतम’ न फ़र्क़ समझो, दुनिया उसी की सारी।
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लेकिन कुचल रहे हैं, हमको कुचलने वाले।
  
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अफ़सोस हाय! हैरत, किस पाप का नतीजा,
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सबसे हमी हैं निर्धन, धन के उगलने वाले।
  
रचनाकाल: सन 1922
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सर पर हैं कर बहुत-से, कर मंे न एक धेला,
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घर पर नहीं है छप्पर, वस्तर उधड़ने वाले।
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जुल्मो-सितम के मारे, दम नाक में हमारा,
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भगवान तक हुए हैं, पर के कतरने वाले।
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फुरसत नहीं है मिलती, इक साल काल से है
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दाने बिना तरसते, नेमत परोसने वाले।
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ऐ मौज करने वालो, कर देंगे हश्र बरपा,
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उभरे ‘चकोर’ जब भी, हम आह भरने वाले!
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रचनाकाल: सन 1930
 
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14:00, 2 मई 2015 के समय का अवतरण

दुखिया किसान हम हैं, भारत के रहने वाले,
बेदम हुए, न दम है, बे-मौत मरने वाले।

इंसान बन के आए, गो पाक इसी ज़मीं पर,
हमसे मगर हैं अच्छे, ये घास चरने वाले।

चक्की मुसीबतों की, दिन-रात चल रही है,
करके पिसान छोड़े हमको, हैं पिसने वाले।

दुनिया है एक तन तो, हम आत्मा हैं उसकी,
लेकिन कुचल रहे हैं, हमको कुचलने वाले।

अफ़सोस हाय! हैरत, किस पाप का नतीजा,
सबसे हमी हैं निर्धन, धन के उगलने वाले।

सर पर हैं कर बहुत-से, कर मंे न एक धेला,
घर पर नहीं है छप्पर, वस्तर उधड़ने वाले।

जुल्मो-सितम के मारे, दम नाक में हमारा,
भगवान तक हुए हैं, पर के कतरने वाले।

फुरसत नहीं है मिलती, इक साल काल से है
दाने बिना तरसते, नेमत परोसने वाले।

ऐ मौज करने वालो, कर देंगे हश्र बरपा,
उभरे ‘चकोर’ जब भी, हम आह भरने वाले!

रचनाकाल: सन 1930