भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"स्त्री की रिक्तता / संजय शेफर्ड" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजय शेफर्ड |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

16:11, 7 मई 2015 के समय का अवतरण

वह वहां भी
जगह तलाश लेती है
जहां तनिक भी जमीन
बची ही नहीं
टूटी हुई देह की
अंगड़ाईयों के लिए
सपने देख लेती है
वह वहां भी
जहां दूर-दूर तक
अथाह बिखराव के बीच
उम्मीद ; नींद के
नामोनिशान तक नहीं
वह वहां भी ढूंढ लेती है
कुछ आवाजें
जख्मी ही सही
खामोशियों को तोड़ने के लिए
हर एक चीख-चिघ्घाड़
दबा लेती है
अपनी छातियो के नीचे
वह धरती नहीं है
ना ही समुंद्र है
और ना ही आकाश
फिर भी जगह पैदा कर लेती है
खुदमें इतनी
जितने में तीनों को समा सके
बिना किसी अवरोध के ही
समझ में नहीं आता
कुछ स्त्रियां
इतनी खाली जगह
क्यों रखती हैं ?
जिसे एक पुरुष चाहकर भी
एक जनम में नहीं भर सकता
खुदको पूरी तरह से
खाली करने के बाद भी
कुछ स्त्रियां
पूरी होने के बाद भी
थोड़ी से रिक्तता
खुदमें शेष रखती हैं
ताकि पुरूष
एक मां की कोख से
दूसरे मां की कोख में
पैदा होते रहें
रिक्तता सदैव
एक जरुरी वस्तु बनी रहे।