"विद्रोह और क्रान्ति / संजय शेफर्ड" के अवतरणों में अंतर
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16:12, 7 मई 2015 के समय का अवतरण
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उस दिन अचानक ही कुछ चुभते हुए दर्द
अनायास ही फूलों के पराग से आकर छातियों पर चिपक गए थे
मैं अपने कंधे पर उस अजनबी का माथा रखकर पूछने लगा था
एक ऐसा पता जिसमें रिश्तों को दर्ज किया जा सके
आंखों से रिसते दर्द के बावजूद
बनाया जा सके होंठों से होंठों पर एक पूल जो दो इंसानों को जोड़े
बाहर और भीतर दोनों ही तरफ से
बिल्कुल वैसे ही जैसे एक चूल्हे की आग दूसरे घर के चूल्हे से
कभी जोड़ती थी आत्मीयता के रिश्ते
और पड़ोसियों से संचय कर लेती थी
कभी नहीं ख़त्म होने वाली रिश्तों की ऊष्णता, प्रेम की ऊष्मा, जीवन की शीतलता
(!!)
अब वह चलन खत्म हो गया
अब पुरबहिया काकी आग लेने नहीं आती
और ना ही उसकी बेटियां कभी घर से बाहर निकलती हैं
बुढ़िया दादी कह रही थी, दुनिया बदल गई है
पड़ोसी, रिश्तेदार और अनजान लोगों में फर्क खत्म हो गया है
पड़ोसियों के भरोसे पर खेती, रिश्तेदारों के भरोसे बेटी
नहीं छोड़ी जा सकती, पर हमारे समय में ऐसा नहीं था
कदम बहकने का डर उस ज़माने में भी काबिज़ था
पर एक इंसान के इंसान से भेड़िया बन जाने का डर बहुत बड़ा होता है
शायद इसीलिए खाना बनाने से पहले ही वह आग बुझाने की जुगत में रहती है
कहती है चारों तरफ आग लगी है, दुनिया जल रही है, चूल्हे को ठण्डा रखना जरुरी है
(!!!)
मैंने भी अपने दर्द में
बुढ़िया दादी और पुरबहिया काकी के डर को शामिल कर लिया है
अपनी बेटियों के पराग जैसे कोमल होंठों पर
थोड़ी सी धूल, मिट्टी और कांटा रख दिया है
घर में लाकर भर दी है जमाने भर की खुशियां
उनके दिलों की बड़ी- बड़ी खिड़कियों को खोलने के बावजूद
बाहर से सिटकनी लगा, चौखट पर अपना कटा हुआ वजूद रख दिया है
शूकर है कि वह जमाने की रवायतों को समझती हैं
और भरसक मेरी भाषा-अल्फ़ाज़ को भी
फिर भी इन्तजार है मुझे, उनके विद्रोह स्वरों और आहटों की
दरअसल, मैं भी यही चाहता हूं कि मेरा भरम टूटे, मेरा खून मुझसे विद्रोह कर बैठे
मेरी हार, मेरी हार बने, मेरी जीत उनकी जीत, मेरी खोई हुई मुस्कान उनके होंठों पर लौटे
आखिर उनको भी तो जीना है आगे की सारी उम्र इन्ही विद्रोहों के बीच
इसलिए, तुम्हें विद्रोह करना सीखना ही होगा
और गर विद्रोह सफल हुआ तो क्रान्ति पैदा होगी
मेरी बेटियों एक दिन तुम प्रेम साथ- साथ क्रान्ति की भी सृजक कहलावोगी।