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छथि जनक हिमाचल दुहुक एक, की भेद जनमि पश्चिम कनेक?
शिव - माथ चढ़लि ऐली गंगा, यमुने! तव प्रतिमा श्यामतेक।।1।।
की करब दूर यदि हरिद्वार, कनखल खलखल नहि अहँक द्वार
हे इन्द्रप्रस्थ - सहचरी रचब, तटपर इतिहास सजल नव-नव।।2।।
द्वापरक आदिसँ अद्यावधि, बसि - बसि उजड़ल, जरि - जरि उपजल
नृप-मुकुँ मणिक किरणावलिसँ अछि अहँक सलिल मलिनहुँ झलमल।।3।।
पश्चिम सँ दक्षिण दूर-दूर, बहि रहल वेगवति पयः पूर
घनश्याम दर्शनक प्यासलि रहि, युग युगसँ चलइत छी किछु कहि।।4।।
यमुने! मधुरा गोकुलक गली, श्यामल अछि गुंजित कुंज कली
राधा-माधवक विलास-ललित, अछि पुलिन-कुंज रस - भरित कलित।।5।।
द्वारका बसल छथि अहँक कृष्ण, चित हुनकहु नित कृष्णे! सतृष्ण
भारत रचइत चित करथि बोध, नहि अहँक भाग्य मे अश्रु - रोध।।6।।
राधा क विरह उद्धव-बोधेँ, अल्पित, कल्पित अलि - अनुरोधेँ
प्रतिवर्ष अहह! घनश्याम आबि, नित सजलहुँ डुबबथि नोर-बाढ़ि।।7।।
तपि गौरी राधा पीत वर्ण, पीतरि बनली प्रतिमा सुवर्ण
नहि मन केवल तनहुक स्वरूप, श्यामे! अहाँक अछि श्याम रूप।।8।।
नहि दुखद बुझल कालिय क दश, नहि कलुषित किछु कय सकल कंस
हल-कर्षण संकर्षणक विरुचि, नहि गनल, देखि श्यामक छवि शुचि।।9।।
छल अहँक नियति से श्याम विरह, हे श्यामे! संचित अश्रु - निबह
गिरि चरण प्रान्त से विह्वल स्वर, की अहँक करुण कविता सुस्वर?।।10।।
कल-कल स्वर नहि, प्रियतम पद-ध्वनि, अन्तर-मीलित छथि नीलम मणि
बसि वृन्दावन वियोग-योगिनि, युग-युग सँ प्रिय, छवि ध्यान क धुनि।।11।।
स्वर - लहरी व्यापित विरह-गान, तट-तट पर विहग क करुण तान
स्मृतिसिक्त अश्रु - जल गिरि कानन, कवि - कल्पनाक उर्वर आङन।।12।।
विरहेँ तपि तीर्थराज अयलहुँ, मिलि गंगाजल निर्मल बनलहुँ
अन्तःसलिला कवि-सरस्वती, मिलि त्रिवेणी क छल सँ कनलहुँ।।13।।
मुक्तिहु मे नहि उद्वैत भाव, चिर - विरहिणि! नयनांजन प्रभाव
स्मृति सलिलहु मे छथि मिलल श्याम, पुष्पक बसि बुझबथि कवि क राम।।14।।
(कव्चिच्च कृष्णोरगभूषणेव भस्मांगरागा तनुरीश्वरस्य।
पश्यानवद्यांगि विभाति गगा भिन्नप्रवाहा यमुनातरंगैः।।’)
भिन्न-प्रवाह यमुना-तरंग, विम्बित रहते गंगा क संग
निधि मिलन-समय शत-शत मुखसँत होइतहुँ, मिलि अन्तहुँ, स्मृतिमे श्यामे! निधि-नीलिमाक
छविसँ कवि-हृदयक कला कलित, रुचि बिन्दु-बिन्दु रचइत अहाँक।।16।।