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‘कृत’ युग विदित विशुद्ध योग हित, भोग योग - हित ‘त्रेता’
‘द्वापर’ योग भोग - हित, ‘कलियुग’ रहइछ केवल भोक्ता
नीति-रीति ‘कृत’ धर्म - समाहित, नीति धर्म - मत ‘त्रेता’
धर्म नीति - मत ‘द्वापर’, ‘कलियुग’ कूट -नीतिहि क नेता
‘कृत’ मनुजत्व शुद्ध देवत्व, देव मानबे ‘त्रेता’
‘द्वापर’ दनुज मनुज बनइछ, ‘कलि’ मनुजे दनुज अचेता
‘कलि’ सूतल आलस्य - जडित्रत, ‘द्वापर’ तन्द्रा सपनाइछ
‘त्रेता’ अभ्युत्थान - शील, ‘कृत’ जाग्रत् जगत जुड़ाइछ
सत्य सभक जीवनमे जेहि छन, ने आलस्य न तन्द्रा
गुणातीत मन - वचन सत्य घन, कृत्य रहित - छल-छन्दा
सत्ययुगक थिक सत् स्वभाव ई, पुनि त्रेताक विचारे
धर्म तत्त्व रुचि प्रचुर, अघहि लघु, मर्यादित व्यवहारे
द्वापर राजस तुलित अनृत - ऋत, भौतिक आत्मिक ध्याने
कलिक कलह आकुल जीवन, तामस गुन दोष्ज्ञ निधाने
विदित चतुयुँग जीवन-कल्पक, अवधि विदित अति स्वल्प
श्रेयक साधन प्रेय - पूर्ण, कर्तव्यक ली संकल्प
नाम कलिक द्वापरक यजन, त्रेताक ध्यान - सन्धान
स्थितप्रज्ञ रहि गुणातीत थिति, कृत युग कृती महान