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चतुयँग-
 
‘कृत’ युग विदित विशुद्ध योग हित, भोग योग - हित ‘त्रेता’
‘द्वापर’ योग भोग - हित, ‘कलियुग’ रहइछ केवल भोक्ता
नाम कलिक द्वापरक यजन, त्रेताक ध्यान - सन्धान
स्थितप्रज्ञ रहि गुणातीत थिति, कृत युग कृती महान
 
चतुर्वेद-
 
साम पद्य, यजु गद्य, वेद ऋक चम्पू उभय विधान
विदित चतुर्थ अथर्व मुक्त स्वच्छन्द वृत्त अनुमान
साम साम, यजु दाम, दण्ड ऋक्, वेद अथर्व विभेद
जीवन नीतिक विदित चारु चारु विधि सिद्धि अभेद
ऋक् प्रभात, मध्याह्न यजुष् सन्ध्या सामक प्रतिरूप
निशा निशीथ अथर्व श्रुतिक अहनिस ओंकार अनूप।।
 
अर्थ-वर्ण ओ वाणी-
 
अभिहित लक्षित व्यंजित पुनि तात्पर्य संगता वाणी वाचा
संवृत विवृत स्पृष्ट उपमा वर्णक विषमा कत ढाँचा
गिरा चतुर्गुण रूप अनूपा परा, अपर पश्यन्ती
अनाहता मध्यमा मुनि मता वैखरि विखरि स्फुरन्ती
 
वर्णाश्रम -
 
ब्रह्मचर्य गार्हस्थ्य वानप्रस्थो चतुर्थ संन्यास
विप्र क्षत्र विश शूद्र रचित वर्णाश्रम सृष्टि विकास
 
चतुर्धाम -
 
अटक-कटक धरि, हिमगिरि-तट सागर-अंचल धरि व्याप
एक भारती-भूमि, जकर कण-कण मे तीर्थ कलाप
तदपि चतुर्दिश सीमा पर सीमापति पीठासीन
देव विराजित छथि हरि-हर युग - युग सँ नित्य नवीन
अछि प्राची सीमा, सनाथ जत जगन्नाथ रथ-रूढ़
दक्षिण रामेश्वरम् स्वयम् छथि दक्ष रक्षके गूढ़
पाश्चात्यक वात्याक रोधके जतय द्वारकानाथ
उत्तरखण्ड अखण्ड बनल बदरी - केदार सनाथ
राष्ट्र-धर्म केर, काल-कर्म केर चारु चिरन्तन धारा
चतुर्धाम मठ शंकर - योजित संस्कृति प्रकृति - उदारा
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जयतु चतुर्मुख चतुर्वद चतुराश्रम वर्ग - चतुष्क
चतुर्मुखी चतुरस्र चतुर्दश करथु सरस रस शुष्क
 
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