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"रहीम दोहावली - 2" के अवतरणों में अंतर

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धनि रहीम गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय।
+
जब लगि जीवन जगत में, सुख दुख मिलन अगोट।
जियत कंज तजि अनत बसि, कहा भौंर को भाय॥101॥
+
रहिमन फूटे गोट ज्‍यों, परत दुहुँन सिर चोट॥61॥
  
धन दारा अरु सुतन सों, लग्यों रहै नित चित्त।
+
जब लगि बित्‍त न आपुने, तब लगि मित्र न कोय।
नहि रहीम कोऊ लख्यो, गाढ़े दिन को मित्त॥102॥
+
रहिमन अंबुज अंबु बिनु, रवि नाहिंन हित होय॥62॥
  
दोनों रहिमन एक से, जौलों बोलत नाहिं।
+
ज्‍यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात।
जान परत है काक पिक, ॠतु बसन्त के भांहि॥103॥
+
अपने हाथ रहीम ज्‍यों, नहीं आपुने हाथ॥63॥
  
नात नेह दूरी भली, जो रहीम जिय जानि।
+
जलहिं मिलाय रहीम ज्‍यों, कियो आपु सम छीर।
निकट निरादर होत है, ज्यों गड़ही को पानि॥104॥
+
अँगवहि आपुहि आप त्‍यों, सकल आँच की भीर॥64॥
  
धूर धरत नित सीस पर, कहु रहीम केहि काज।
+
जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग जोय।
जेहि रज मुनि पतनी तरी, सो ढ़ूंढ़त गजराज॥105॥
+
मँड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय॥65॥
  
नाद रीझि तन देत मृग, नर धन देत समेत।
+
जानि अनीती जे करैं, जागत ही रह सोइ।
ते रहिमन पसु ते अधिक, रीझेहुं कछु देत॥106॥
+
ताहि सिखाइ जगाइबो, रहिमन उचित होइ॥66॥
  
नहिं रहीम कछु रूप गुन, नहिं मृगया अनुराग।
+
जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
देसी स्वान जो राखिए, भ्रमत भूख ही लाग॥107॥
+
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छाँड़त छोह॥67॥
  
निज कर क्रिया रहीम कहि, सिधि भावी के हाथ।
+
जे गरीब पर हित करैं, ते रहीम बड़ लोग।
पांसे अपने हाथ में, दांव न अपने हाथ॥108॥
+
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्‍ण मिताई जोग॥68॥
  
परि रहिबो मरिबो भलो, सहिबो कठिन कलेम।
+
जे रहीम बिधि बड़ किए, को कहि दूषन का‍ढ़ि।
बामन हवैं बलि को छल्लो, दियो भलो उपदेश॥109॥
+
चंद्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत तें बा‍ढि॥69॥
  
नैन सलोने अधर मधु, कहु रहीम घटि कौन।
+
जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।
मीठो भावे लोन पर, अरु मीठे पर लौन॥110॥
+
रहिमन दोहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं॥70॥
पन्नगबेलि पतिव्रता, रति सम सुनो सुजान।
+
हिम रहीम बेली दही, सत जोजन दहियान॥111॥
+
  
पसिर पत्र झंपहि पिटहिं, सकुचि देत ससि सीत।
+
जेहि अंचल दीपक दुर्यो, हन्‍यो सो ताही गात।
कहु रहीम कुल कमल के, को बेरी को मीत॥112॥
+
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु ह्वै जात॥71॥
  
पात-पात को सीचिबों, बरी बरी को लौन।
+
जेहि रहीम तन मन लियो, कियो हिए बिच भौन।
रहिमन ऐसी बुद्धि को, कहो बैरगो कौन॥113॥
+
तासों दुख सुख कहन की, रही बात अब कौन॥72॥
  
बड़ माया को दोष यह, जो कबहूं घटि जाय।
+
जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय।
तो रहीम गरिबो भलो, दुख सहि जिए बलाय॥114॥
+
ताकों बुरा न मानिए, लेन कहाँ सो जाय॥73॥
  
पुरुष पूजै देवरा, तिय पूजै रघूनाथ।
+
जसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह।
कहि रहीम दोउन बने, पड़ो बैल के साथ॥115॥
+
धरती पर ही परत है, शीत घाम औ मेह॥74॥
  
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
+
जैसी तुम हमसों करी, करी करो जो तीर।
अब दादुर वक्ता भए, हम को पूछत कौन॥116॥
+
बाढ़े दिन के मीत हौ, गाढ़े दिन रघुबीर॥75॥
  
प्रीतम छवि नैनन बसि, पर छवि कहां समाय।
+
जो अनुचितकारी तिन्‍हैं, लगै अंक परिनाम।
भरी सराय रहीम लखि, आपु पथिक फिरि जाय॥117॥
+
लखे उरज उर बेधियत, क्‍यों न होय मुख स्‍याम॥76॥
  
बड़े दीन को दुख सुने, लेत दया उर आनि।
+
जो घर ही में घुस रहे, कदली सुपत सुडील।
हरि हाथी सों कब हुती, कहु रहीम पहिचानि॥118॥
+
तो रहीम तिनतें भले, पथ के अपत करील॥77॥
  
बड़े बड़ाई नहिं तजैं, लघु रहीम इतराइ।
+
जो पुरुषारथ ते कहूँ, संपति मिलत रहीम।
राइ करौंदा होत है, कटहर होत न राइ॥119॥
+
पेट लागि वैराट घर, तपत रसोई भीम॥78॥
  
बड़े पेट के भरन को, है रहीम दुख बाढ़ि।
+
जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घटि जाँहि।
यातें हाथी हहरि कै, दयो दांत द्वै काढ़ि॥120॥
+
गिरधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं॥79॥
  
बढ़त रहीम धनाढय धन, धनौं धनी को जाई।
+
जो मरजाद चली सदा, सोई तौ ठहराय।
धटै बढ़ै वाको कहा, भीख मांगि जो खाई॥121॥
+
जो जल उमगै पारतें, सो रहीम बहि जाय॥80॥
बड़े बड़ाई ना करें, बड़ो न बोलें बोल।
+
रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका है मोल॥122॥
+
  
बरू रहीम कानन बसिय, असन करिय फल तोय।
+
जो रहीम उत्‍तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
बन्धु मध्य गति दीन हवै, बसिबो उचित न होय॥123॥
+
चंदन विष व्‍यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥81॥
  
बिपति भए धन ना रहै, रहै जो लाख करोर।
+
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय।
नभ तारे छिपि जात हैं, ज्यों रहीम ये भोर॥124॥
+
प्‍यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ो जाय॥82॥
  
बांकी चितवनि चित चढ़ी, सूधी तौ कछु धीम।
+
जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को इहै हवाल।
गांसी ते बढ़ि होत दुख, काढ़ि न कढ़त रहीम॥125॥
+
तौ कहो कर पर धर्यो, गोवर्धन गोपाल॥83॥
  
विरह रूप धन तम भए, अवधि आस उधोत।
+
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
ज्यों रहीम भादों निसा, चमकि जात खद्दोत॥126॥
+
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय॥84॥
  
बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस।
+
जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय।
महिमा घटी समुन्द्र की, रावन बस्यो परोस॥127॥
+
बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अँधेरो होय॥84॥
  
बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
+
जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट।
रहिमन बिगरै दूध को, मथे न माखन होय॥128॥
+
भगत भगत कोउ बचि गये, चरन कमल की ओट॥ 86॥
  
भावी काहू न दही, दही एक भगवान।
+
जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट।
भावी ऐसा प्रबल है, कहि रहीम यह जानि॥129॥
+
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट॥87॥
  
भीत गिरी पाखान की, अररानी वहि ठाम।
+
जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस।
अब रहीम धोखो यहै, को लागै केहि काम॥130॥
+
निठुरा आगे रायबो, आँस गारिबो खीस॥88॥
  
भजौं तो काको मैं भजौं, तजौं तो काको आन।
+
जो रहीम तन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं।
भजन तजन ते बिलग हैं, तेहिं रहीम जू जान॥131॥
+
जल में जो छाया परी, काया भीजति नाहिं॥89॥
  
भावी या उनमान की, पांडव बनहिं रहीम।
+
जो रहीम भावी कतौं, होति आपुने हाथ।
तदपि गौरि सुनि बांझ, बरू है संभु अजीम॥132॥
+
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन साथ॥90॥
भलो भयो घर ते छुटयो, हस्यो सीस परिखेत।
+
काके काके नवत हम, अपत पेट के हेत॥133॥
+
  
भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गुनत लघु भुप।
+
जो रहीम होती कहूँ, प्रभु-गति अपने हाथ।
रहिमन गिरि ते भूमि लौं, लखौ तौ एकै रुप॥134॥
+
तौ कोधौं केहि मानतो, आप बड़ाई साथ॥91॥
  
महि नभ सर पंजर कियो, रहिमन बल अवसेष।
+
जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटाय।
सो अर्जुन बैराट घर, रहे नारि के भेष॥135॥
+
ज्‍यों नर डारत वमन कर, स्‍वान स्‍वाद सों खाय॥92॥
  
मनसिज माली कै उपज, कहि रहीम नहिं जाय।
+
टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार।
फल श्यामा के उर लगे, फूल श्याम उर जाय॥136॥
+
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्‍ताहार॥93॥
  
मथत मथत माखन रहै, दही मही विलगाय।
+
तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर।
रहिमन सोई मीत है, भीत परे ठहराय॥137॥
+
जल में उलटी नाव ज्‍यों, खैंचत गुन के जोर॥94॥
  
मन से कहां रहीम प्रभु, दृग सों कहा दिवान।
+
तब ही लौ जीबो भलो, दीबो होय न धीम।
देखि दृगन जो आदरैं, मन तोहि हाथ बिकान॥138॥
+
जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम॥95॥
  
माह मास लहि टेसुआ, मीन परे थल और।
+
तरुवर फल नहिं खात हैं, सरबर पियहिं न पान।
त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपने ठौर॥139॥
+
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥96॥
  
मांगे मुकरिन को गयो, केहि न त्यागियो साथ।
+
तासों ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस।
मांगत आगे सुख लहयो, ते रहीम रघुनाथ॥140॥
+
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझे पियास॥97॥
  
मान सरोवर ही मिलैं, हंसनि मुक्ता भोग।
+
तेहि प्रमान चलिबो भलो, जो सब हिद ठहराइ।
सफरिन भरे रहीम सर, बक बालक नहिं जोग॥141॥
+
उमड़ि चलै जल पार ते, जो रहीम बढ़ि जाइ॥98॥
  
मान सहित विष खाय के, संभु भए जगदीस।
+
तैं रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय।
बिना मान अमृत पिए, राहु कटायो सीस॥142॥
+
खस कागद को पूतरा, नमी माँहि खुल जाय॥99॥
  
मांगे घटत रहीम पद, कितौ करो बड़ काम।
+
थोथे बादर क्वाँर के, ज्‍यों रहीम घहरात।
तीन पैग वसुधा करी, तऊ बावने नाम॥143॥
+
धनी पुरुष निर्धन भये, करै पाछिली बात॥100॥
मूढ़ मंडली में सुजन, ठहरत नहीं विसेख।
+
स्याम कंचन में सेत ज्यों, दूरि कीजिअत देख॥144॥
+
  
यद्धपि अवनि अनेक हैं, कूपवन्त सर ताल।
+
थोरो किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय।
रहिमन मान सरोवरहिं, मनसा करत मराल॥145॥
+
ज्‍यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहत न कोय॥101॥
  
मुनि नारी पाषान ही, कपि पसु गुह मातंग।
+
दादुर, मोर, किसान मन, लग्‍यो रहै घन माँहि।
तीनों तारे रामजु तीनो मेरे अंग॥146॥
+
रहिमन चातक रटनि हूँ, सरवर को कोउ नाहिं॥102॥
  
मंदन के मरिहू, अवगुन गुन न सराहि।
+
दिव्‍य दीनता के रसहिं, का जाने जग अंधु।
ज्यों रहीम बांधहू बंधै, मरवा हवै अधिकाहि॥147॥
+
भली बिचारी दीनता, दीनबन्‍धु से बन्‍धु॥103॥
  
मुक्ता कर करपूर कर, चातक-जीवन जोय।
+
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
एतो बड़ो रहीम जल, ब्याल बदन बिस होय॥148॥
+
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय॥104॥
  
यह रहीम मानै नहीं, दिन से नवा जो होय।
+
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं।
चीता चोर कमान के, नए ते अवगुन होय॥149॥
+
ज्‍यों रहीम नट कुण्‍डली, सिमिटि कूदि च‍ढ़ि जाहिं॥105॥
  
यों रहीम सुख दु:ख सहत, बड़े लोग सह सांति।
+
दुख नर सुनि हाँसी करै, धरत रहीम न धीर।
उदत चंद चोहि भांति सों, अथवत ताहि भांति॥150॥
+
कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर॥106॥
  
यह रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय।
+
दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि।
बैर प्रीति अभ्यास जस, होत होत ही होय॥151॥
+
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागत आगि॥107॥
  
ये रहीम फीके दुवौ, जानि महा संतापु।
+
दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि।
ज्यों तिय कुच आपन गहे, आपु बड़ाई आपु॥152॥
+
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि॥108॥
  
याते जान्यो मन भयो, जरि बरि भसम बनाय।
+
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।
रहिमन जाहि लगाइए, सोइ रूखो है जाय॥153॥
+
लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नैन॥109॥
  
रन बन व्याधि विपत्ति में, रहिमन मरै न रोय।
+
दोनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहिं।
जो रच्छक जननी जठर, सो हरि गए कि सोय॥154॥
+
जान परत हैं काक पिक, ऋतु बसंत के माँहिं॥110॥
रहिमन अपने पेट सों, बहुत कह्यो समुझाय।
+
जो तू अनखाए रहे, तो सों को अनखाय॥155॥
+
  
रहिमन अति न कीजिए, गहि रहिए निज कानि।
+
धन थोरो इज्‍जत बड़ी, कह रहीम का बात।
सैंजन अति फूलै तऊ, डार पात की हानि॥156॥
+
जैसे कुल की कुलबधू, चिथड़न माँह समात॥111॥
  
वहै प्रति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत।
+
धन दारा अरु सुतन सों, लगो रहे नित चित्‍त।
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत॥157॥
+
नहिं रहीम कोउ लख्‍यो, गाढ़े दिन को मित्‍त॥112॥
  
रहिमन अपने गोत को, सबै चहत उत्साय।
+
धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय।
मृग उछरत आकास को, भूमी खनत बराह॥158॥
+
उदधि बड़ाई कौन हे, जगत पिआसो जाय॥114॥
  
रहिमन अब वे विरिछ कहं, जिनकी छांह गंभीर।
+
धरती की सी रीत है, सीत घाम औ मेह।
बागन बिच बिच देखियत, सेहुड़ कंज करीर॥159॥
+
जैसी परे सो सहि रहै, त्‍यों रहीम यह देह॥115॥
  
रहिमन सूधी चाल तें, प्यादा होत उजीर।
+
धूर धरत नित सीस पै, कहु रहीम केहि काज।
फरजी मीर न है सके, टेढ़े की तासीर॥160॥
+
जेहि रज मुनिपत्‍नी तरी, सो ढूँढ़त गजराज॥116॥
  
रहिमन खोटि आदि की, सो परिनाम लखाय।
+
नहिं रहीम कछु रूप गुन, नहिं मृगया अनुराग।
जैसे दीपक तम भरवै, कज्जल वमन कराय॥161॥
+
देसी स्‍वान जो राखिए, भ्रमत भूख ही लाग॥117॥
  
रहिमन राज सराहिए, ससि सुखद जो होय।
+
नात नेह दूरी भली, लो रहीम जिय जानि।
कहा बापुरो भानु है, तपै तरैयन खोय॥162॥
+
निकट निरादर होत है, ज्‍यों गड़ही को पानि॥118॥
  
रहिमन आंटा के लगे, बाजत है दिन रात।
+
नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।
घिउ शक्कर जे खात हैं, तिनकी कहां बिसात॥163॥
+
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू न देत॥119॥
  
रहिमन एक दिन वे रहे, बीच न सोहत हार।
+
निज कर क्रिया रहीम कहि, सुधि भाव के हाथ।
वायु जो ऐसी बस गई, बीचन परे पहार॥164॥
+
पाँसे अपने हाथ में, दॉंव अपने हाथ॥120॥
 
+
रहिमन रिति सराहिए, जो घत गुन सम होय।
+
भीति आप पै डारि कै, सबै मियावे तोय॥165॥
+
रीति प्रीति सबसों भली, बैर न हित मित गोत।
+
रहिमन याही जनम की, बहुरि न संगति होत॥166॥
+
 
+
रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि।
+
दूध कलारी कर गहे, मद समुझैं सब ताहि॥167॥
+
 
+
समय लाभ समय लाभ नहिं, समय चूक सम चूक।
+
चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक॥168॥
+
 
+
रहिमन नीच प्रसंग ते, नित प्रति लाभ विकार।
+
नीर चोरावै संपुटी, भारू सहे धारिआर॥169॥
+
 
+
रहिमन दानि दरिद्रतर, तऊ जांचिबे योग।
+
ज्यों सरितन सूखा करे, कुआं खनावत लोग॥170॥
+
 
+
रहिमन तीर की चोट ते, चोट परे बचि जाय।
+
नैन बान की चोट तैं, चोट परे मरि जाय॥171॥
+
 
+
रुप बिलोकि रहीम तहं, जहं तहं मन लगि जाय।
+
याके ताकहिं आप बहु, लेत छुड़ाय, छुड़ाय॥172॥
+
 
+
सदा नगारा कूच का, बाजत आठो जाम।
+
रहिमन या जग आइकै, का करि रहा मुकाम॥173॥
+
 
+
समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जात।
+
सदा रहै नहीं एक सी, का रहीम पछितात॥174॥
+
 
+
रहिमन आलस भजन में, विषय सुखहिं लपटाय।
+
घास चरै पसु स्वाद तै, गुरु गुलिलाएं खाय॥175॥
+
 
+
रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार।
+
चोरी करि होरी रची, भई तनिक में छार॥176॥
+
रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय।
+
बीच उखारी रसभरा, रह काहै ना होय॥177॥
+
 
+
रहिमन रिस को छांड़ि कै, करो गरीबी भेस।
+
मीठो बोलो, नै चलो, सबै तुम्हारो देस॥178॥
+
 
+
रहिमन मारगा प्रेम को, मर्मत हीत मझाव।
+
जो डिरिहै ते फिर कहूं, नहिं धरने को पांव॥179॥
+
 
+
रहिमन सुधि सब ते भली, लगै जो बारंबार।
+
बिछुरे मानुष फिर मिलें, यहै जान अवतार॥180॥
+
 
+
रहिमन चाक कुम्हार को, मांगे दिया न देई।
+
छेद में ड़डा डारि कै, चहै नांद लै लेई॥181॥
+
 
+
रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।
+
हित अनहित मा जगत में, जानि परत सब कोय॥182॥
+
 
+
रहिमन रजनी ही भली, पिय सों होय मिलाप।
+
खरो दिवस केहि काम जो, रहिबो आपुहि आप॥183॥
+
 
+
रहिमन बात अगम्य की, कहन सुनन की नाहिं।
+
जो जानत सो कहत नहिं, कहत ते जानत नाहिं॥184॥
+
 
+
रहिमन अंसुवा नैन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ।
+
जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि देइ॥185॥
+
 
+
रहिमन मंदत बड़ेन की, लघुता होत अनूप।
+
बलि मरद मोचन को गए, धरि बावन को रूप॥186॥
+
 
+
रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट है जात।
+
नारायण हू को भयो, बावन अंगूर गात॥187॥
+
समय दसा कुल देखिकै, सबै करत सनमान।
+
रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान॥188॥
+
 
+
सरवर के खग एक से, बाढ़त प्रीति न धीम।
+
पै मराल को मानसर, एकै ठौर रहीम॥189॥
+
 
+
रहिमन ठठरी धूर की, रही पवन ते पूरि।
+
गांठ युक्ति की खुलि गई, अन्त धूरि की धूरि॥190॥
+
 
+
राम राम जान्यो नहीं, भइ पूजा में हानि।
+
कहि रहीम क्यों मानिहैं, जम के किंकरकानि॥191॥
+
 
+
रहिमन सो न कछू गनै, जासों लागो नैन।
+
सहि के सोच बेसाहियो, गयो हाथ को चैन॥192॥
+
 
+
रूप कथा पद चारू पट, कंचन दोहा लाल।
+
ज्यों ज्यों निरखत सूक्ष्म गति, मोल रहीम बिसाल॥193॥
+
 
+
लिखी रहीम लिलार में, भई आन की आन।
+
पद कर काटि बनारसी, पहुंचे मगहर थान॥194॥
+
 
+
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
+
टूटे से फिर मिले, मिले तो गांठ पड़ जाय॥195॥
+
 
+
रहिमन धरिया रहंट की, त्यों ओछे की डीठ।
+
रीतेहि सन्मुख होत है, भरी दुखावै पीठ॥196॥
+
 
+
रहिमन लाख भली करो, अगुने अपुन न जाय।
+
राग सुनत पय पुअत हूं, सांप सहज धरि खाय॥197॥
+
 
+
रहिमन तुम हमसों करी, करी करी जो तीर।
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बाढ़े दिन के मीत हो, गाढ़े दिन रघुबीर॥198॥
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रहिमन बिगरी आदि की, बनै न खरचे दाम।
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हरि बाढ़े आकास लौं, तऊ बावने नाम॥199॥
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रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच।
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मांस दियो शिवि भूप ने, दीन्हो हाड़ दधीच॥200॥
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13:17, 11 जून 2015 के समय का अवतरण

जब लगि जीवन जगत में, सुख दुख मिलन अगोट।
रहिमन फूटे गोट ज्‍यों, परत दुहुँन सिर चोट॥61॥

जब लगि बित्‍त न आपुने, तब लगि मित्र न कोय।
रहिमन अंबुज अंबु बिनु, रवि नाहिंन हित होय॥62॥

ज्‍यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात।
अपने हाथ रहीम ज्‍यों, नहीं आपुने हाथ॥63॥

जलहिं मिलाय रहीम ज्‍यों, कियो आपु सम छीर।
अँगवहि आपुहि आप त्‍यों, सकल आँच की भीर॥64॥

जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग जोय।
मँड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय॥65॥

जानि अनीती जे करैं, जागत ही रह सोइ।
ताहि सिखाइ जगाइबो, रहिमन उचित न होइ॥66॥

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छाँड़त छोह॥67॥

जे गरीब पर हित करैं, ते रहीम बड़ लोग।
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्‍ण मिताई जोग॥68॥

जे रहीम बिधि बड़ किए, को कहि दूषन का‍ढ़ि।
चंद्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत तें बा‍ढि॥69॥

जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।
रहिमन दोहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं॥70॥

जेहि अंचल दीपक दुर्यो, हन्‍यो सो ताही गात।
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु ह्वै जात॥71॥

जेहि रहीम तन मन लियो, कियो हिए बिच भौन।
तासों दुख सुख कहन की, रही बात अब कौन॥72॥

जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय।
ताकों बुरा न मानिए, लेन कहाँ सो जाय॥73॥

जसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह।
धरती पर ही परत है, शीत घाम औ मेह॥74॥

जैसी तुम हमसों करी, करी करो जो तीर।
बाढ़े दिन के मीत हौ, गाढ़े दिन रघुबीर॥75॥

जो अनुचितकारी तिन्‍हैं, लगै अंक परिनाम।
लखे उरज उर बेधियत, क्‍यों न होय मुख स्‍याम॥76॥

जो घर ही में घुस रहे, कदली सुपत सुडील।
तो रहीम तिनतें भले, पथ के अपत करील॥77॥

जो पुरुषारथ ते कहूँ, संपति मिलत रहीम।
पेट लागि वैराट घर, तपत रसोई भीम॥78॥

जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घटि जाँहि।
गिरधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं॥79॥

जो मरजाद चली सदा, सोई तौ ठहराय।
जो जल उमगै पारतें, सो रहीम बहि जाय॥80॥

जो रहीम उत्‍तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्‍यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥81॥

जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय।
प्‍यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ो जाय॥82॥

जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को इहै हवाल।
तौ कहो कर पर धर्यो, गोवर्धन गोपाल॥83॥

जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय॥84॥

जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय।
बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अँधेरो होय॥84॥

जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट।
भगत भगत कोउ बचि गये, चरन कमल की ओट॥ 86॥

जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट।
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट॥87॥

जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस।
निठुरा आगे रायबो, आँस गारिबो खीस॥88॥

जो रहीम तन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं।
जल में जो छाया परी, काया भीजति नाहिं॥89॥

जो रहीम भावी कतौं, होति आपुने हाथ।
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन साथ॥90॥

जो रहीम होती कहूँ, प्रभु-गति अपने हाथ।
तौ कोधौं केहि मानतो, आप बड़ाई साथ॥91॥

जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटाय।
ज्‍यों नर डारत वमन कर, स्‍वान स्‍वाद सों खाय॥92॥

टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्‍ताहार॥93॥

तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर।
जल में उलटी नाव ज्‍यों, खैंचत गुन के जोर॥94॥

तब ही लौ जीबो भलो, दीबो होय न धीम।
जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम॥95॥

तरुवर फल नहिं खात हैं, सरबर पियहिं न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥96॥

तासों ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस।
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझे पियास॥97॥

तेहि प्रमान चलिबो भलो, जो सब हिद ठहराइ।
उमड़ि चलै जल पार ते, जो रहीम बढ़ि जाइ॥98॥

तैं रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय।
खस कागद को पूतरा, नमी माँहि खुल जाय॥99॥

थोथे बादर क्वाँर के, ज्‍यों रहीम घहरात।
धनी पुरुष निर्धन भये, करै पाछिली बात॥100॥

थोरो किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय।
ज्‍यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहत न कोय॥101॥

दादुर, मोर, किसान मन, लग्‍यो रहै घन माँहि।
रहिमन चातक रटनि हूँ, सरवर को कोउ नाहिं॥102॥

दिव्‍य दीनता के रसहिं, का जाने जग अंधु।
भली बिचारी दीनता, दीनबन्‍धु से बन्‍धु॥103॥

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय॥104॥

दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं।
ज्‍यों रहीम नट कुण्‍डली, सिमिटि कूदि च‍ढ़ि जाहिं॥105॥

दुख नर सुनि हाँसी करै, धरत रहीम न धीर।
कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर॥106॥

दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागत आगि॥107॥

दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि।
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि॥108॥

देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नैन॥109॥

दोनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, ऋतु बसंत के माँहिं॥110॥

धन थोरो इज्‍जत बड़ी, कह रहीम का बात।
जैसे कुल की कुलबधू, चिथड़न माँह समात॥111॥

धन दारा अरु सुतन सों, लगो रहे नित चित्‍त।
नहिं रहीम कोउ लख्‍यो, गाढ़े दिन को मित्‍त॥112॥

धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन हे, जगत पिआसो जाय॥114॥

धरती की सी रीत है, सीत घाम औ मेह।
जैसी परे सो सहि रहै, त्‍यों रहीम यह देह॥115॥

धूर धरत नित सीस पै, कहु रहीम केहि काज।
जेहि रज मुनिपत्‍नी तरी, सो ढूँढ़त गजराज॥116॥

नहिं रहीम कछु रूप गुन, नहिं मृगया अनुराग।
देसी स्‍वान जो राखिए, भ्रमत भूख ही लाग॥117॥

नात नेह दूरी भली, लो रहीम जिय जानि।
निकट निरादर होत है, ज्‍यों गड़ही को पानि॥118॥

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू न देत॥119॥

निज कर क्रिया रहीम कहि, सुधि भाव के हाथ।
पाँसे अपने हाथ में, दॉंव न अपने हाथ॥120॥